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________________ दशम अध्याय व्याख्या। "अनन्त' उसको कहते हैं जिसका कूल किनारा नहीं है। 'नाग' =न+अग; न=नास्ति, अग=सर्प, अर्थात् जो सर्प नहीं परन्तु सर्पके सदृश है। सांपमें विष रहता है, इसमें विष नहीं। सर्प में महीन मोटे आकारसे आदि अन्तका बोध कराता है, इसमें फण न रहनेसे केवल लम्बा ही लम्बा (कूटस्थमें देखने में आता है ); इस नागराजको ही अनन्त कहते हैं। यही क्षीर-सागरमें विष्णुकी शय्या है; वही विष्णु 'मैं' हूँ। हममें सर्वदा तन्मयत्व हेतु अनन्त 'मैं' रूपसे अवस्थित है; इसलिये नागोंके भीतर 'मैं' अनन्त हूं। __“वरुणो यादसामहम्" । 'वरुण'-वृ=वेष्टन करना, और उनन् शब्दमें संज्ञा;-अर्थात् जो वेष्टन करके रहते हैं। समुद्र वा रसतत्त्व पृथिवी को वेष्टन किये हुए हैं। "यादः" = जलदेवता, जैसे कूप, ह्रद, तड़ाग, नदी, नद प्रभृति। प्रत्येक ये सब जगत् की जीवनी शक्ति हैं। इन सबके भीतर रस अर्थात् पुष्टिकरण शक्ति रूपसे मैं विराजता हूँ। इन छोटी शक्तिओंका आश्रयस्थल समष्टिशक्ति अनन्तदेव सागर स्वरूप वरुण ही 'मैं' हूँ। __"पितणामयंमा चास्मि"। "अर्यमा”-अर्य्य (ऋगमन करना )+मन् + कनिन् ; कनिन् अर्थमें दीप्ति पाना। तबही हुआ शरीर त्यागके पश्चात् जो पितृलोकमें गमन करके उत्तमता और दीप्ति को प्राप्त होते हैं; उन्हें अर्यमा कहते हैं। __ साधक ! तुम देखो, क्रिया विशेषसे जब तुम चित्राणीके भीतर ब्रह्मनाड़ीमें अति सूक्ष्मरूपसे रहते हो, तब तुम्हारा स्थूलशरीरमें रहना नहीं होता। ऐसा कि तुम्हारा स्थूलदेह है कि नहीं तुम्हें इसकी भी होश नहीं रहती ( स्थूलदेहको छोड़कर जो लोग रहते हैं, वही पितृलोक हैं )। इस अवस्थामें तेजोराशीके भीतर कूटस्थमें जो मूर्ति (आत्मस्वरूप ) का दर्शन होता है वही पितृदेव अर्यमा है। साधक को उत्साह देनेके लिये यह पूजनीय देवता उपयोगी समयमें उपस्थित
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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