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________________ २३० श्रीमद्भगवद्गीता - अनुवाद। काम, क्रोध और लोभ यह तीन प्रकारके नरकके दरवाजे हैं तथा आत्माके नाशक (नीच योनि प्रापक ) हैं; इसलिये इन तीनों को सर्वथा परित्याग करना चाहिये ॥ २१॥ - व्याख्या। "नरक”-(न-नास्ति, रं=प्रकाश, कं=मस्तक) मस्तकमें आत्मज्योतिका प्रकाश जिस अवस्थामें नहीं रहता वही नरक है; अर्थात् अज्ञानता वा विवेकहीन अवस्था ही नरक है। यह जो नरक है इसके द्वार तीन हैं एक काम, दूसरा क्रोध, और तीसरा लोभ। इस काम, क्रोध और लोभके वश होनेसे ही उस नरक अवस्थाकी प्राप्ति होती है और आत्माका नाश होता है अर्थात् आत्मज्ञान ढंक जानेसे जीवात्माकी अधोगति होती है, नीच योनि प्राप्ति होती है। अतएव यह तीनों वृत्तियां मुमुक्षुओं के लिये त्याज्य हैं ॥ २१॥ एतैविमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैत्रिभिर्नरः । आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥ २२ ॥ अन्वयः। हे कौन्तेय। तमोद्वारैः ( तमसो नरकस्य द्वारभूतैः ) एतैः त्रिभिः (कामादिभिः ) विमुक्तो नरः आत्मनः श्रेयः ( तपोयोगादिक श्रेयःसाधनं ) आचरति ततश्च परां गतिं याति ( मोक्ष प्राप्नोति ) ॥ २२ ॥ अनुवाद। हे कौन्तेय । नरकके द्वार स्वरूप इन तीनोंसे विमुक्त होनेसे ही मनुष्य अपना श्रेयः (कल्याण) आचरण करता है, परागति भी प्राप्त होती है ॥२२॥ व्याख्या। हे कौन्तेय ! काम, क्रोध और लोभ, इन तीनोंके विशेष रूपसे छूट जानेसे ही प्राकृतिक तमोका दरवाजा अतिक्रम हो जाता है। तब सुषुम्नामें प्रवेशाधिकार प्राप्त होनेसे अविरोधी आत्मज्योतिका प्रकाश होता है, और आत्मयोगके आचरण करनेके लिये साधक निःश्रेयस जो परागति है, उसे ही पाता है। ब्रह्ममें मिल करके ब्रह्मत्व लेता है। फिर आने जानेका कोई काम नहीं रहता ॥२२॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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