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________________ २२६ षोड़श अध्याय __अब बात यह है कि असुर-स्वभाव वाले लोग देहात्माभिमान सम्पन्न, आत्मद्वषी, क्रूरमति तथा अशुभकारी होते हैं। इसलिये प्रयाण-कालमें भगवान उन सबके मनमें देहभावका स्मरण करा देते हैं। इसलिये उन सबको जन्ममृत्युसंकूल संसारमार्गमें देह धारण करना होता है, वे सब पुनः आत्मद्वषी करमति और अशुभकारी होते हैं। बार बार इस प्रकार होते रहनेसे उन सबका क्रम अधोगति दिशामें जाता रहता है। वे सब श्रात्मद्रोही भीषण प्रकृतिके मनुष्यसे क्रम अनुसार व्याघ्र सर्प प्रभृति आसुरी योनिमें पड़ते रहते हैं। इस प्रकारसे वे लोग अपना अपना कर्मफल आप भोगते रहते हैं ॥ १६ ॥ आसुरों योनिमापन्ना मूढ़ा जन्मनि जन्मनि । मामप्राप्येव कौन्तेय ततो यान्त्यधमा गतिम् ॥२०॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! (ते ) मूढाः जन्मनि जन्मनि आसुरी योनि आपन्ना: मां अप्राप्य एव ततः ( तस्मादपि ) अधमा गति ( कृमिकीटादिगति) यान्ति ॥२०॥ अनुवाद। हे कौन्तेय ! वे ( सब ) मूढगण जन्म जन्म आसुरी योनिको प्राप्त होकर, मुझको न पाके उससे भी अधम गतिको प्राप्त होते हैं ॥ २०॥ व्याख्या। हे कौन्तेय ! आसुरी योनिगत वे मूढजन मुझको प्राप्त न होकर हमसे अतीव दूरमें जाकरके मेरी ज्योतिके अन्तरालमें तमोबहुल नीच जन्म लेने लेते निस्तरंग अवोचि-नरकके कीट होकरके रहते हैं । उन सबको फिर "मैं" त्व पानेका उपाय नहीं रहता ॥२०॥ त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। . कामक्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ २१॥ अन्वयः। कामः क्रोधः तथा लोभः इति इदं त्रिविध नरकस्य द्वार अतएष आत्मनः नाशनं ( नौचयोनिप्रापकं ), तस्मात् एतत्त्रयं [ सर्वात्मना ] त्यजेत् ॥ २१॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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