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________________ षोडश अध्याय २३१ यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामचारतः । * ... न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परी गतिम् ॥ २३ ॥ अन्वयः। यः शास्त्रविधि ( वेदविहितं धर्म ) उत्सृज्य ( त्यक्त्वा ) कामचारतः ( यथेष्ट ) वर्तते, सः सिद्धिं ( तत्वज्ञानं ) न अवाप्नोति, न च सुख ( उपशमं ) न च परां गतिं (मोक्ष) अवाप्नोति ॥ २३ ॥ अनुवाद। शास्त्र विधि परित्याग करके, ज' स्वेच्छाचारी होते है, वे सिद्धिको नहीं पाते, सुख नहीं पाते और परागतिको भी प्राप्त नहीं होते ॥ २३ ॥ व्याख्या। शास्त्र अर्थमें वेद, और विधि अर्थमें नियम है। वेदविहित धर्म वा नियमको शास्त्र-विधि कहते हैं। मूलाधारादि सहस्रार पर्यन्त क्रम अनुसार भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यं इन सप्त व्याहृति स्थानके ज्ञानको वेद कहते हैं (२ अः४५ श्लोक व्याख्या देखो)। इस वेद वा ज्ञानमें जीवकी आत्मोन्नति साधन होती है । इसलिये शास्त्रविधिका अर्थ आत्मोन्नति सम्बन्धीय वेदके नियम है । वेद ब्रह्माजीके मुख कमलसे उच्चारित हुए हैं; ब्रह्मदेवका वाक्य ही शास्त्र है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा मूलाधार कमलमें ही साधकके नयन गोचरमें आते हैं। सृष्टि के बाद ही सहयज्ञ प्रजागणके ऊपर उनका (ब्रह्माका) प्रथम अनुशासन वाक्य है कि-"देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथः। इष्टान् भोगान् हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तदत्तानप्रदायभ्यो यो भुक्ते स्तेन एव सः।” ३य अः ११ । १२ श्लोक। इस वाक्यमें जीवकी सहज-यज्ञकी कथा ही कही हुई है। यह सहज यज्ञ अर्थात् प्राणायाम क्रिया उस श्लोककी व्याख्यामें समझाया हुआ है। यह वाक्य ही आत्मोन्नति सम्बन्धीय नियम है; यही शास्त्रविधि है। * “कामकारतः" इति पाठान्तरं कामप्रयुक्तः सन् इत्यर्थः ॥ २३ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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