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________________ पञ्चदश अध्याय १६५ ब्रह्मका स्थान है। उमीसे ही कार्य-विस्तार प्रारम्भ होकरके महत्तत्त्व अहंकार, तन्मात्रा इत्यादि रूपसे उत्पन्न २४ तस्व क्रम अनुसार सप्त स्वर्ग और सप्त पाताल समन्वित तथा हस्त-पद-अंगुलो विशिष्ट स्थूल आकारमें परिणत हो करके शाखा स्वरूपसे अधोदिशामें विस्तृत हुआ है। इसलिये संसारको ( जीवशरीरको ) ऊर्ध्वमूल तथा अध:शाख कहते हैं। जीव निरन्तर परिणामशील है। अभी आज जोते हैं, कल रहेंगे कि नहीं इसका कोई ठौर ठिकाना नहीं है। इस कारण संसारको "अश्वत्य" ( आने वाले प्रभात काल पर्यन्त जिसको स्थिति का निश्चय नहीं) अर्थात् क्षण-विध्वंसी कहते हैं। यह जीव-शरीर सर्वदा ध्वंस होते रहनेसे भी, सदा काल जन्म लेता रहता है, इसलिये इसका और व्यय नहीं-क्षय भी नहीं है। जैसे नदी जलका प्रवाह है। नदीमें थोड़ा सा जल आया, तत्क्षणात् वह समुद्रकी ओर चला गया, उसके स्थानमें तत्क्षणात् फिर उतना जल आ पहुँचा वह भी चला गया, फिर आया, इसी तरह जलके अविछिन्न आने जानेसे नदीका स्रोत (प्रवाह) अखण्ड रहता है, निपटता नहीं; किन्तु अवश्य चही जल उसी स्थान पर नहीं रहता परन्तु नदीका जल प्रवाहाकारमें अव्यय-अक्षय-अनन्त हो करके रहता है। उसी तरह जोक्-जगत् भी जीवके प्रवाहसे अव्यय-अक्षय-अनन्त है। इस कारणसे इस संसारको "अव्यय" कहा जाता है। सब छन्द इस वृक्षके पत्र स्वरूप हैं। छन्द है वेद अर्थात् जाननेको जो कुछ क्रिया। जाननेके विषय दो हैं :-कर्म और ज्ञान । भूतभावके उद्भव करनेवाले विसर्गका नाम कर्म है (८म अः देखो)। अर्थात् प्राकृतिक २४ तत्वोंके अनुलोम और प्रतिलोम प्रकरणमें भीतर बाहर जितने प्रकारके मिश्र अमिश्र क्रिया हो सकें, वे सबही कर्म हैं। इसलिये कर्म ही विज्ञान है । और प्राकृतिक तत्व तथा आत्मतत्त्वका स्वरूप और सम्बन्ध बोध होना ज्ञान है। इस कर्म और ज्ञानको जिससे जाना जाता है, वही वेद
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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