SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चदशोऽन्यायः श्रीभगवानुवाच । ऊर्ध्वमूलमधाशाखमश्वत्यं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥१॥ अनुवाद । ऊर्ध्वमूलं (अव्यक्तमायाशक्तिमत् ब्रह्म ऊवं तन्मूलमस्येति ) अधःशाख ( महदहंकारतन्मात्रादयः शाखा इवास्याधो भवन्तीति ) अश्वथं (क्षणप्रध्वंसिनं संसारवृक्ष) अव्ययं प्राहुः ( अनादिकालप्रवृत्तत्वात् प्रवाहरूपेणाबिच्छेदाच ), छन्दांसि ( वेदाः ) यस्य ( संसारवृक्षस्य ) पर्णानि ( पर्णस्थानीयाः ); यः तं ( एवम्भूत-मश्वत्थं ) वेद, स एव वेहवित् ( वेदार्थवित् ) ॥ १॥ अनुवाद। ऊर्ध्वमूल तथा अधःशाख अश्वत्थको अव्यय कहते हैं, समूह छन्द जिसका पत्र स्वरूप है; उस अश्वत्थको जो जानते हैं, वे हो वेदार्थवित् हैं ॥१॥ व्याख्या। १४ अध्याय २७ श्लोकमें जो "ब्रह्मणोहि प्रतिष्ठाह" वचन कहा हुआ है, वह अहं किस प्रकारका है ? इस शरीरको अश्वत्थ वृक्ष सजाय करके जिससे क्षुद्रबुद्धि जीव उस अहं' शब्दका मर्मार्थ शीघ्र जान सकें निजबोध विचारसे ऐसी चेष्टा होती है। संसार एक वृक्षस्वरूप है। यह वृक्ष जीवमय है । इसलिये ससार का नाम जीवजगत् है। अव्यक्त माया-शक्तिमत् ब्रह्म ही संसारका मूल-कारण है। इस मूल-कारणसे कार्यविस्तार प्रारम्भ होते हुए महतत्त्व, अहंकार, तन्मात्रा प्रभृति कार्यों की विविध शाखा उत्पन्न हुई हैं। वही देव, असुर, गन्धर्व, किन्नर, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग प्रभृति नाना प्रकार जीवोंके अधिष्ठान है। अतएव हिरण्यगर्भादि यावतीय जीव संसार-वृक्षकी शाखास्थानीय हैं। इन सब जीवोंके शरीरका ऊल्वे स्थान मस्तक है; उस मस्तकमें ब्रह्मरन्ध्र ही उस मायामत्
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy