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________________ १६६ - श्रीमद्भगवद्गीता है। वेद त्रैगुण्यविषय और ऋक , यजु, साम, अथर्वन् इन चार अंशों में विभक्त है (२य अः ४५ श्लोककी व्याख्या देखो)। वेद इन त्रिगुणमय कर्म और ज्ञानसे संसारको छाह रक्खा है। इसलिये वेद संसार वृक्षके पत्र-स्वरूप है। पत्र वृक्षकी शोभा और सजीवताका परिचायक है; कर्म और ज्ञान भी उसी तरह संसारकी शोभा तथा जीवके जीवत्वका निदर्शक है। पत्र वृक्षकी रक्षाके लिये और छायाकारक है; सूर्यतापसे उत्तप्त प्राणीगण उसी छायेमें आकर शान्ति लेते हैं; परन्तु पत्रोंके आवरणसे महाकाशकी गाढ़ नीलिमाकी मनोमुग्ध करनेवाली अनन्त-विस्तृत अखण्ड महिमा ढंकी रहती है। उसी तरह वेद भी कर्म और ज्ञानरूप छायासे संसारका अस्तित्व बना रखता है तथा जीव उस कर्म और ज्ञानके आश्रयमें आ करके त्रिताप-ज्वालासे शान्त होते हैं, परन्तु वेद त्रैगुण्यविषय होनेसे उस वेदके आश्रयमें रहनेसे निस्वैगुण्य अवस्थाका विमल आनन्द नहीं मिलता-अनन्त अव्यक्त महिमामें मन प्राण लय नहीं होता, त्रिगुणके भीतर प्राकृतिक अधिकारमें ज्ञान और कर्मकी क्रियामें आत्माहारा हो करके रहना होता है। जो भाग्यवान साधक सद्गुरुकी कृपासे आत्मज्ञान लाभ करके ज्ञानदृष्टि द्वारा उक्त रूप मूल-शाखा-पत्रयुक्त संसार-वृक्षको (देहको) जान लिये-यथार्थ रूपसे प्रत्यक्ष कर लिये, वे ही वेदार्थवित् हैं * ॥१॥ अधश्चोर्ध्व प्रमृतास्तस्यशाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥२॥ • स्वयं भगवान ही वेदवित् हैं, क्योंकि पश्चात् १४श श्लोकमें है “वेदविदेव चाहं"। किन्तु साधक भी क्रमोन्नतिसे जिस प्रकार क्षेत्रज्ञ पद लाम करते हैं, उसी प्रकार वेदवित् होते है। (७९२ पृ० पादटीका देखो)।
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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