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________________ १५० श्रीमद्भगद्गीता व्याख्या। आकाशमें बादल छाये हुए रहनेसे तथा हवाके भी बन्द हो जानेसे. एक प्रकारकी उमससी हो जाती है; परन्तु ऐसी अवस्थामें आकाशको वायु-शून्य कहना उपयुक्त न होगा। क्योंकि उस समय भी वायु आकाशमें अति सूक्ष्म रूपसे वर्तमान रहता है। जीव-शरीर की त्वचाकी ग्रहणशक्ति अत्यन्त स्थूल होनेके कारण वह अत्यन्त सूक्ष्म वायुका स्पर्श नहीं ले सकती। स्थूलको सूक्ष्म भेद करता है, सूक्ष्मको स्थूल भेद नहीं कर सकता, यही इसका कारण है। उसी तरह असीम अनन्त ब्रह्ममें पाणि, पाद, चक्षु, श्रुति, बोधन शक्तिका आधार मस्तक, और मुख आदि जगत्को जो कुछ क्रिया शक्ति हैं वे सब सूक्ष्मरूप धारण करके खारी जलमें निमक सदृश आकाशको भी गर्भमें रक्खे हुए हैं। "तत्" में इन सब क्रिया शक्तिका कहीं कुछ नहीं घटता बढ़ता। सब जगह एकरस समान है। २य अर्थ। साधक जब विश्वलीलाको अच्छी तरह समझ लिये, तब साधक देखते हैं कि, इसमें सत्त्वगुणका प्रकाश, रजोगुणकी क्रिया और तमोगुणकी स्थिति, इन तीनों बिना और कोई सार नहीं है । इन तीनों के मिलकर एक होनेसे ही माया होती है। वह माया भी असार है। फिर उस असार मायाका विकार यही तीन हैं; इसलिये उत्पादीभंगुर है फिर तीनों ताप भी इसमें हैं। भूतके साथ खेल खेलनेसे जो ताप है, उसे आधिभौतिक ताप कहते हैं, देवताके साथ खेल खेलनेसे जो ताप होता है, उसे आधिदैविक ताप कहते हैं। और आत्माको ले करके खेलनेसे जो ताप होता है, . उसको आध्यात्मिक ताप कहते हैं। यह तीनों भी विकार हैं। यह जब निश्चय हो जाता है, तब इससे अलग होने के लिये साधक अकरण करण रूप एक प्रकार की क्रिया लेके बैठे (अर्थात् जिसमें करण मात्र भी शून्य हो जाता है)। इस क्रिया का अभ्यास जितना गाढ़ होने लगता है उतना ही साधक देखते हैं कि, प्रतिक्रममें साधक सबसे अलग हैं। जब कोई
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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