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________________ १५१ त्रयोदश अध्याय कहीं भी साधकको स्पर्श कर न सके, तब साधकमें संकोचना नष्ट होकर उदारता खिल उठती है । यह उदारता, पहले वाली जो संकोकता थी, उसकी संकोचताको नष्ट करके अपनी उदार भावमें मिला लेती हैं । तब उदारता और संकोचता दोनोंका ही प्रभाव हो जाता है। इन दोनोंकी यह जो एकीभूत अवस्थामें स्थिति है, यही स्थिति अवस्था ही साधकका तद्ब्रह्म स्वरूप है। अपरिपक्व साधक इस अवस्थासे पुनः संसार-अवस्था में उतर आकर समझते हैं कि, साधक की उस पहले वाली अवस्थाको ही “तत्” (ब्रह्म ) कहते हैं। जो "तत्” सर्वत्र पाणिपादविशिष्ट, सर्वत्र अक्षिशिरोमुखविशिष्ट, सर्वत्र श्रुतिमत् और लोक-जगतमें सर्वव्यापी हो करके अवस्थित है ॥ १४ ।। सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । असक्तं सर्वभृच्चैव निगुणं गुणभोक्तृ च ॥ १५ ॥ अन्वयः। सर्वेन्द्रियगुणाभासं ( अन्तःकरणबहिःकरणोपाधिभूनेंः सर्वेन्द्रियगुणैः अध्यवसाय-संकल्प-श्रवण-वचनादिभिरवभासत इति सर्वेन्द्रियव्यापार व्यापृतं ) सर्वेन्द्रियविवजितं ( सर्वकरणरहितं अतो न करणव्यापारावृतं ) असक्त ( संगशून्यं) सर्वभृत् च एव ( सर्वस्याधारभूतं ) निर्गुणं ( सत्त्वादिगुणरहितं) गुणभोक्त च (गुणानां सत्त्वादिना पालक) ॥ १५॥ अनुवाद। (वही ब्रह्म ) सर्वेन्द्रिय व्यापार द्वारा व्यापृत परन्तु सर्वेन्द्रिय रहित (अतएव इन्द्रिय-व्यापार में व्यापृत नहीं ) है, संगशून्य तिसपर भी सबके आधार स्वरूप, सत्वादि गुण रहित अथच सत्वादि गुणके पालक है ।। १५ ।। व्याख्या। अत्यन्त क्षुद्र और सीमाबद्ध शरीर में ही इन्द्रियादि रहता हैं, परन्तु इन इन्द्रियों को कार्यकरी शक्ति और उस शक्तिका सत्ता जैसे पृथिवीका गन्ध, जलका रस, तेजका रूप, वायुका स्पर्श और आकाशका शब्दके सदृश सर्वव्यापी तथा सर्वत्र विस्तृत है। पूर्व श्लोक की कही हुई साधककी अवस्था विस्तार रूपमें रहनेसे, सीमाबद्ध
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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