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________________ त्रयोदश अध्याय १४६ व्याख्या। साधकने विचारके द्वारा क्षेत्र और ज्ञान क्या है, उसे समझ लिया है। अब ज्ञानका शेष सिद्धान्त अर्थात् जाननेकी वस्तु जो ज्ञेय पदार्थ है, उसे समझते हैं। ज्ञेय शब्दका अर्थ जानने योग्य वस्तु है। इस जगत्में जो कुछ दिखाई पड़ता है, वह सब ही सादि सान्त अर्थात् उत्पत्ति-स्थिति-नाश-धर्मी है। इस उत्पत्ति-स्थिति-नाशधम्मिओंके जानने योग्य वस्तु वह है, जिसकी उत्पत्ति-स्थिति-नाश नहीं है। क्योंकि जैसे जो हैं, वह अपने आपको भलीभांति जानते हैं। जो जिसको नहीं जानता है, वही उसकी जानने योग्य वस्तु है । इसलिये कहता हूँ कि, सादि-सान्त-मरधम्मिओंके जानने योग्य वस्तु वही है जो अनादि, अजर, अमर और अनन्त है। जिसके जाननेसे, इस जन्मके कष्ट, मरणका भय दोनों दूर हो जाते हैं । कारण चित्तकी विषयकारा वृत्तियां समेट लेकर, चिन्तन-स्रोत उस असीम-अनन्त-परंब्रह्ममें फेंकनेसे उससे गाढ़ सहवासके लिये जीवमें असीम, अनादि, अनन्तत्व उत्पन्न होवेगा; -जैसे अग्निके सहवाससे लौह-पिण्ड । ऐसा होनेसे ही जीव, जन्म-मृत्युसे मुक्त होकर ब्रह्मत्व प्राप्तिके लिये अमरत्व प्राप्त करेगा। जो ब्रह्म अकेला है, सत् भी नहीं और असत् भी नहीं (क्योंकि सत् अथवा असत् एक भी मान लेनेसे द्वतभाव बना रह जाता है। द्वैतादत विवर्जित जो है, वही ब्रह्म है। ॥ १३ ॥ सर्वतः पाणिपादन्तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १४ ॥ अन्वयः। तत् सर्वतः पाणिपाद, सर्वतः अक्षिशिरोमुखं, सर्वत: अतिमत् ( श्रवणेन्द्रियेयुक्त ), लोके सर्व प्राबृत्य ( संव्याप्य ) तिष्ठति ॥ १४ ॥ अनुवाद। वह सर्वत्र पाणि तथा पाद विशिष्ठ, सर्वत्र चक्षु, मस्तक तथा मुख विशिष्ट, सर्वत्र श्रवणेन्द्रिय विशिष्ट और संसारके समस्त पदार्थों में व्याप्त है ।।१४॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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