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________________ श्रीमद्भगवद्गीता ___ महाभारतमें लिखा है, धृतराष्ट्र अर्जुनके ज्येष्ठतात हैं। अतएव एकही साधकको एकदफे अर्जन और एकदफे धृतराष्ट्र कहना विसदृश जान पड़ता है। किन्तु मनमें रखना उचित है कि, गीता योगशास्त्र है। २४ तत्वोंके जिस तत्वमें जब चेतना शक्ति खेलती रहती है, उस समयमें वही तत्व चेतनायुक्त हो करके अपना काम करती रहती है। जो कुछ काम काज है वह एक हो शरीरमें वृत्तिभेद करके भिन्न भिन्न भावमें होता रहता है। इसीसे यहां पितापुत्र-आत्मीय-स्वजनादिवत् कोई सम्बन्ध ही नहीं। रूपककी वर्णना करनेसे उन्हीं सब सम्बन्धोंको ले गपोड़ा बांधना पड़ता है। योगशास्त्रसे इतिहासकी यही पृथकता है। द्रष्टव्य (१) गीताको समझनेके लिये तीन अवस्थाओं अवश्य समझना चाहिये। इन तीन अवस्थाओंको छोड़ करके साधककी और भी अनेक अवस्थायें हैं। उसकी अन्तकी अवस्था महाप्रस्थानकाल है। जिसका उपाय ८ म अध्यायमें वर्णित किया गया है। वह सब विषय यहां कहना बेप्रयोजन है । - द्रष्टव्य (२) द्वितीय अवस्था 'श्रीकृष्णार्जुन-सम्बाद” है। इसलिये गीतामें अर्जुन और भगवान्की उक्ति समस्तको इस अवस्थाको लक्ष्य करके ही समझना चाहिये। और तृतीय अवस्था "धृतराष्ट्रसंजय सम्बाद” है; इसलिये संजयकी उक्ति समूहको साधककी तृतीय अवस्थाको लक्ष्य करके समझना होगा। अब २१ । २२ । २३ श्लोक का अर्थ कहा जाता है___ साधक सुषम्नाके प्रवेश-द्वारके ठीक भीतर पहुँचकर देखते हैंहैं-कूटस्थके स्निग्ध तेजकी ज्योति “अच्युत” अर्थात् स्थिर, धीर अथच आकर्षण शक्तिसे युक्त है। उसमें साधककी दृक्शक्ति सम्पूर्ण रूपसे आकृष्ट हो जाने पर फिर दूसरी तरफ नहीं जाती, स्थिर हो रहती है; ( यही अच्युत अवस्था है )। साधककी दृष्टि इस प्रकार स्थिर
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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