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________________ प्रथम अध्याय साधकको केवल अर्जुन नाममें निर्देश करनेपर भी, गीताके बहुत ही स्थानमें उनको पार्थ, धनजय, पाण्डव, कौन्तेय, सब्यसाची आदि नामोंसे सम्बोधन किया गया है, क्योंकि देखा जाता है धर्मक्षेत्रकुरुक्षेत्रमें उपस्थित होनेसे भी उनके मनमें प्रथमतः माया-ममतादि रूप दुर्बलताका प्रकाश, फिर बीच बीचमें विराग भाव भी प्रकाशित हुआ, उनके उस समयके मनकी अवस्था समूहको प्रकाश कर देनेके लिये ही भिन्न भिन्न नामसे उनको सम्बोधन किया गया है। और भी एक बात है,-साधकके इस अवस्था में आ पहुंचनेसे सामने चालक स्वरूप कूटस्थचैतन्य "श्रीकृष्ण" आगे खड़े होते हैं, इसलिये कृष्ण सारथि हैं; इस समय साधकके मनमें जाननेके लिये जो इच्छायें होती हैं, कूटस्थचैतन्यकी तेजोमय ज्योतिसे उसका उत्तर स्वरूप उनके मनमें आपही आप उसका मीमांसा प्रकाश पाती रहती है, और नाना प्रकार आकाशसम्भवा (अशरीरी) वाणो भी कह सुनते रहते हैं। वही सब दर्शन, श्रवण करके साधक अवाक हो करके स्तम्भित हो जाते हैं। ( ११ श अः में यही सब व्यक्त हुआ है ) । इसके बाद तृतीयावस्था है। उस द्वितीयावस्थामें क्रिया करते करते सुषुम्नाके भीतर ब्रह्मनाड़ीसे ऊचे तरफ उठते उठते जब भीष्मरूप अविद्याभुक्त अहंत्व (देहात्माभिमान ) निष्क्रिय हो जाता है, तब साधककी एक प्रकारकी समाधि होती है। समाधिके भोग कालमें उनकी साधनाकी चेष्टाके स्थिर हो जाने पर विकर्म रूप सञ्चित कर्म राशि फल देनेके लिये उनको बार बार खींच करके अनजान भाव में नीचे उतारकर एकदम बाहरके विषयमें लगा देती है। सुतरां तब उनको मनो-धर्मशील होना पड़ता है। उस समय चतन्यज्योतिका प्रकाश न रहनेसे, स्मृतिशक्ति के सहारेसे अन्धवत् क्रिया करके साधनलब्ध अनुभवात्मिकी दिव्य हशक्तिसे आमूल अपना साधन-प्रकरण उनको देखना पड़ता है। इस अवस्था प्राप्त साधकको गीतामें धृतराष्ट्र कहा गया है।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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