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________________ प्रथम अध्याय होनेसे भी, विषयवासनाका क्षय न होनेसे उनको चंचलताग्रस्त भी . होना होता है; किन्तु गुरुपदेशके अनुसार प्रवृत्ति-निवृत्ति या आकर्षण-विकर्षण शक्ति-दोनोंके मध्य स्थानमें (सेनयोरुभयोर्मध्ये ) रहनेकी चेष्टा भी बलवती रहती है। यही भाव २१ श श्लोकमें व्यक्त हुआ है, इस समय साधकके मनमें स्मृति उठती है—एकदफे देख लू ! कौन कौन वृत्तियां अब परस्पर प्रतिद्वन्द्वि भाव करके वर्तमान हैं; किसके साथ मुझको युद्ध करना पड़ेगा (२२ श श्लोक ) वा विषयवासना वृत्तियोंको बलवत् रखनेके लिये कौन कौन वृत्तियां मनमें उदय हुए हैं (२३ श श्लोक ) ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ संजय उवाच । एवमुक्तो हृषीकेशो गुड़ाकेशेन भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥२४॥ भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥२५॥ अन्वयः। हे भारत ! गुड़ाकेशेन (जितनिद्रे णाजुनेन ) एवं ( उक्त प्रकारेण ) उक्तः ( सन् ) हृषीकेशः ( श्रीकृष्णः ) उभयोः सेनयोः मध्ये भीष्मद्रोणप्रमुखतः (भीष्मद्रोणयोः सम्मुखे ) सर्वेषां च महोक्षिताम् ( राज्ञां सम्मुखे ) रथोत्तमं स्थापयित्वा-हे पार्थ ! एतान् समवेतान् कुरून् पश्य इति उवाच ॥ २४ ॥ २५ ॥ अनुवाद। संजय कहते हैं-हे भारत ! जितनिद्र अर्जुन कर्तृक इस प्रकार उक होने पर हृषीकेशने उभय सेनाके मध्यस्थलमें भीष्म, द्रोण एवं समुदय राजन्य -वौके सन्मुखमें उत्तम रथ स्थापन करके "पार्थ! ये सब समवेत कौरवोंको अवलोकन करो" यह कहा ।। २४ ।। २५॥ व्याख्या। साधक पूर्व कथित प्रकारसे क्रिया विशेषके बाद नीचे उतर. करके मनोधर्मी हो करके दिव्यदृष्टिमें पुनः जो देखते हैं, वही "संजय उवाच" है। और मनोधी हो करके साधक जो आत्मचिन्ता करते हैं, वही उनकी "भारत" अवस्था है। भारतभा-दीप्ति
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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