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________________ २५ प्रथम अध्याय "सहदेव” = पृथ्वीतत्व । (सह-सहित, देव जो खेलता रहता है)। पृथ्वीके साथ ही जीवका खेल, अर्थात् पांच भूतोंके भीतर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पांच गुणयुक्त पार्थिवाणुके साथही जीवका घनिष्ठ सम्बन्ध अधिक है; इसलिये पृथ्वी-तत्वका नाम सहदेव है; इस घनिष्ठताके कारण ही ( स्थल ) शरीराभिमान प्रबल है। मूलाधार चक्र इस पृथ्वीतत्वका स्थान है; साधन क्रमसे यहांसे मत्तभृगशब्दवत् शब्द उठता है; यही मणिपुष्पक शख ध्वनि है, यह संशयात्मिका वृत्ति वा सवितर्क सम्प्रज्ञात समाधि अवस्था है। कूटस्थ लक्ष्य करके ही क्रिया करनेका उपदेश है। भाज्ञाचक्रमें अकम्पन स्थिति लाभ करनेसे ही ज्ञान विज्ञानविद् हुआ जाता है; . क्योंकि यहां अति सूक्ष्माकारसे पंचतत्व ही वर्तमान रहता है, इसलिये मूलाधारादि पंच चक्रका जानने वाला विषय समूह यहां ही मालूम हो जाता है; फिर तत्वातीत निरंजन पुरुष भी वहां विद्यमान हैं, इससे संस्पर्श के लिये “प्रज्ञानमानन्दं ब्रह्म” "तत्वमसि” "अहं ब्रह्मास्मि" इत्यादि महावाक्य समूह का अर्थ प्रत्यक्ष करके, पश्चात् ब्राह्मीस्थिति लाभ करके "सर्वे खलु इदं ब्रह्म" ज्ञानमें जीवन्मुक्त हो करके विचरण किया जाता है। क्रियाकालमें क्रिया करते करते कूटस्थमें मनस्थिर होते होते एक वायु नीचेसे ऊर्द्ध दिशामें सरासर तीब्रवेगसे उठती रहती है, और उसीके साथ एक शब्दका भी उत्थान होता है, उसी शब्दको 'नाद' कहते हैं। किन्तु कूटस्थ में लक्ष्य रखके मनस्थिर होनेके समय, उस वायु का धक्का (शब्डकी ध्वनि ) पहिले आज्ञाचक्रमें ही अनुभव होता है। वह नाद एकाग्र मन कर सुननेसे समझमें आता है कि, भिन्न भिन्न बहुत सा स्वर इकट्ठा मिले हुये एक स्वतन्त्र शब्द सरीखे बज रहा है; वही शब्द ही हृषीकेशका पाँचजन्य शंखध्वनि है। तब ( गुरुपदेशके मतसे) मानस क्रियासे उस ध्वनिके भीतर प्रवेश करने के लिये चेष्टा करनी पड़ती है। चेष्टा मात्रसे ही, उस वायुके
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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