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________________ श्रीमद्भगवद्गीता शक्तिसंचारके कारण-स्वरूप मणिपुरस्थ तेज-तत्वका आविर्भाव होने पर उस ध्वनिके ठीक बीचमें एक तेजोमय ज्योति खिल आती है (ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिः” ), वेसे साथही साथ ध्वनिका.भी परिवर्तन होता है, तब ठीक झंकारके साथ बीणा-शब्दवत् शब्द बज उठता है । यह शब्द ही अर्जुन का “देवदत्त" शंखनाद है। उस वीणा-शब्दके भीतर मनको प्रवेश कराते जाओ तो, उस ऊर्द्धगामी वायुके धक्कामें वायुतत्वका प्रकाश प्रत्यक्षमें आता है, और साथ ही साथ शब्द बदलकर दीर्घधण्टानिनादवत् ध्वनि श्रुतिमें आती है। यही शब्द भीमका पौण्ड्रनामा महा शंखध्वनि है। इस शब्दके भीतर मनको प्रवेश करानेसे, तीब्र बैद्य दिक शक्ति उत्पन्न हो मनको विशुद्धमें उठाकर आकाशव्यापी कर देती है। बाहर भी शरीरमें रोमाञ्च होता है, और मेघगर्जन सदृश शब्द सुननेमें आता है, वही शब्द युधिष्ठिरका अनंतविजय-शंख ध्वनि है। विशुद्ध कमलमें पहुँच करके उस वायुका वेग एकदम निस्तेज हो जाता है। पांच भौतिकका अवलम्बन न पानेसे वह और ऊपर उठ नहीं सकता, तब धीरे-धीरे नीचे की तरफ विस्तार होता रहता है; निम्नगति होनेसे ही उसका धक्का ( कोई प्रकार बाधा न पाकर ) एकदम स्वाधिष्ठानमें पहुँचते ही सुमधुर वेणु शब्दवत् शब्द उठता है, वहो शब्द नकुलका सुघोष-शंखरव है । इस समयमें एक प्रकार अपार आनन्द रसके प्रकाशसे मन विभोर हो जाता है; किन्तु उस वायुका वेग, नीचेकी तरफ क्रमानुसार प्रबलसे प्रबलतर होनेपर, स्वाधिष्ठानको स्पर्श करके ही मूलाधार में आ जाती है; क्रम अनुसार उसका वेग जैसा स्थिर होता है; वसाही ठीक मत्तभृङ्गके शब्द सदृश शब्द उठता है; जिसका नाम सहदेवका मणिपुष्पक-शंखध्वनि है। इस शब्दमें साधकका मन बड़ा मतवाला हो जाता है; जैसे मतवाला होना, वैसे ही चंचलताका प्रकाश, उस चंचलताको आश्रय करके मन बाहरमें आ पहुंचता है। इस समय साधक को निमिषके भीतर "पृथक् पृथक्" बहुतसा. शब्द एकादिक्रमसे
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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