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________________ अष्टम अध्याय 367 सबके ऊपर है, जिसके ऊपर और कुछ ( आदि अन्त विशिष्ट ) नहीं है। 'तुम' के अस्तित्व श्वास पर्यन्त है, इस श्वासके ऊपर में ही 'मैं' हूँ। कहावत है कि, "जबतक श्वास, तबतक आश” श्वास जब मिट जाती है अर्थात् भीतर की श्वास भीतरमें, बाहरकी श्वास बाहरमें हो जाती है उसीके साथ आश भी मिटकर तत्क्षणातू "मैं” हो जाती है / 'मैं पुरुष है। अनन्यभक्तिसे ही यह "मैं” हुअा जाता है। गुरुवाक्य में अटल विश्वासका नाम भक्ति है / यह जो आकाश-धोलाई है, गुरुवाक्यमें अटल विश्वास न होनेसे यह नहीं होता। अब ठीक करके देख लो, इस ''मैं' के ठीक नीचेसे ही प्रकृतिका प्रारम्भ है, इसलिये "अन्तःस्थानि भूतानि;" और प्रकृतिके ठीक ऊपरसे ' मैं” का प्रारम्भ है। यह "भूत" और "तत्" एक हो गये जिसे अब देखते हो। यह यह भूत और तत् कहा गया, प्रत्यक्ष करके शान्ति लो // 22 // यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिञ्चव योगिनः / . प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ // 23 // अन्वयः। हे भरतर्षभ। यत्र काले प्रयाताः ( मृताः ) योगिनः अनावृत्ति यान्ति, ( यत्र काले ) तु आवृत्तिं च एव यान्ति, तं कालं पक्ष्यामि // 23 // अनुवाद। हे भरतर्षभ ! योगीगण जिस कालमें शरीर छोड़कर चले जानेसे और नहीं फिरते, तथा जिस कालमें गमन करनेसे फिर आते हैं उसी कालके विषयमें मैं तुमको कहता हूँ // 23 // व्याख्या। निश्वास बाहर कर देना वा त्यागकर देनेका नाम काल (मृत्यु) है, उसका उपदेश पहले ही किया हुआ है (८म अः ६ष्ठ श्लोक)। अब, जिस शेष निश्वासमें शरीर त्याग करनेसे 'अनावृत्ति' अर्थात मुक्ति और 'पुनरावृत्ति' अर्थात् पुनर्जन्म होता है उसीका उपदेश किया जाता है। योगीजन ठीकसे समझके, इन दोनोंमेंसे (अनावृत्ति और पुनरावृत्ति ) जिसको इच्छा ही प्रहण वा त्याग कर सकते हैं। उसी शेष निश्वास त्यागकी कथा "मैं" कहता हूँ की की
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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