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________________ 368 श्रीमद्भगवद्गाता अग्निज्योतिरहः शुक्लः षष्मासा उत्तरायणम् / तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः / / 24 // अन्धयः। अग्निोतिः अहः शुक्ल: उत्तरायणम् षष्मासाः, तत्र प्रयाताः ब्रह्मविदः जनाः ब्रह्म गच्छन्ति // 24 // अनुवाद। जिस कालमें अग्निज्योतिः अहह शुक्ल तथा उत्तरायण षष्मास उदित होता है, ब्रह्मविद् व्यक्तिगण उसी कालमें गमन करनेसे ब्रह्ममें मिल जाते है // 24 // व्याख्या। सप्तजिह्वा अग्निका सात प्रकार रङ्ग है। उसके भीतर मुक्ति देनेवाला रङ्ग कैसा है वह समझ लो,-एक ढेर से अग्निके भीतर, ऊपर थोड़ा थोड़ा राख जम गया, बीच मेंसे एक कोयला टूट कर दो खण्ड हो गया, टूटे हुए दोनों खण्डके शरीरसे चोर काला रङ्ग निकला, उसी काला दोनोंमें अग्नि जोर करके पुनः लाल हो गया' और सब कालेको खा लिया। धीरे धीरे उसका तेज बढ़ते बढ़ते तीसीके फूलके भीतर वाले रङ्ग सदृश श्यामता लेकर एक श्वेत ज्योति का प्रकाश पाया। उस श्यामताहीन श्वेत ज्योतिको ही अग्निोति कहते हैं। अग्निहोत्रमें इस ज्योतिकी उत्पत्ति होनेसे ही कार्यसिद्धि होती है। यह ज्योति, और पहले १८वां श्लोकमें जो अहः कहा हुआ है वही अहः ज्योति, और शुक्ल (सफेद) इन तीनोंके मिश्रणसे एक अपरूप द्य ति प्रकाश पाता है। मरणकालमें प्राणायाम करने नहीं पड़ता आप ही श्राप होता है, उसको चातुर्थिक प्राणायाम कहते हैं / इस चातुर्थिक प्राणायाममें अक्सर बहुत है। साधक इस समयमें केवल गुरूपदिष्ट स्थानमें लक्ष्य करके रहेंगे, प्राणायाम करने नहीं होगा, आपही आप होता है। प्राणायामकी शक्ति करके जब यह त्रिमिश्रणकी ज्योति आकर लक्ष्यस्थलमें खड़ी होवेगी वा प्रकाश पावेगी, तब साधक गुरूपदेश अनुसार ठोक्करसे प्राणत्याग करेंगे। यह
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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