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________________ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। "अव्यक्त" प्रकृतिको कहते हैं। इस प्रकृतिके ऊपर दिशाका शेष सीमा हो "मैं"-"तुम" का संयोग है। इस संयोगके नीचे का दिशा "तुम" है और ऊपरका दिशा "मैं" है। यही अक्षर अवस्था है। यह उभयात्मक अवस्था ही परमागतिका प्रारम्भ है; इसी को प्राप्त होनेसे पुनः संसारमें आने नहीं होता। इसीलिये इसको हमारा नित्यधाम वा परमधाम कहते हैं। इस धाममें गति होने पश्चात् ही साधकको परमागति प्राप्त होती है। वह जो चित्तके ऊपरस्तरका भाव है, वह जो प्रकृति-वशी भाव है, जिसको अक्षर अवस्था कहते हैं ( ८म अः १म श्लोक) जिस अवस्थामें प्रकृतिका समस्त छलना ( विज्ञान ) जाना जाता है ; प्रकृति भी और साधकको छलसे वशीभूत नहीं कर सकेंगी जानबूझके लज्जाके मारे निरस्त होती है; सुतरां साधक और पुनरावृत्तिमें लक्ष्य नहीं करते, स्थायी ब्रह्मत्व ले लेते हैं ( ५म अः 13 / 14 श्लोक देखो ) // 21 // पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् // 22 // अन्धयः। हे पार्थ ! सः पुरुषः ( अहं ) परः (निरतिशयः, यस्मात् "पुरुषान्न परं किञ्चित्" ) अनन्यया तु भक्त्या ( एकान्तभक्त्या एव ) लभ्यः, यस्य ( कारणभूतस्य पुरुषस्य ) अन्तःस्थानि ( मध्ये स्थितानि ) भूतानि ( कार्य्यभूतानि, कार्य हि कारणस्थान्तवती भवति), येन (पुरुषेन ) इदं सर्व ( जगत् ) ततं ( व्याप्त) // 22 // अनुवाद। हे पार्थ! जिनके भीतर सकल भूत अवस्थित हैं, जिनसे यह समस्त जगत् व्याप्त है, वह पुरुपही पर ( श्रेष्ठ ) तथा एक मात्र भक्तिसे प्राप्य है // 22 // व्याख्या। अब साधक ! देखो, यह जो "पुरुष”–पुर है तुम, और सो रहा हूँ 'मैं'-यह व्द्यात्मक ("मैं" तुम संयोग) अवस्था ही
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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