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________________ अष्टम अध्याय ३४७. जाने लगा। इसलिये कहते थे कि कालका जो अवस्था अपरिज्ञात है, वही भविष्यत् है; कालका जो अति सूक्ष्म वा व्यक्त अवस्था है, वही वर्तमान है; कालका जो अति स्थूल अवस्था है, वही भूत है। यह जो कर्मभुक् काल का गर्भस्थ प्रलीन अवस्था, लय अवस्था वा परिणाम अवस्था है, इस अवस्थाको भूत कहते हैं, अर्थात् जो जन्मता है. जन्म लेकरके थोड़े दिन रहता है, पुनः जन्म लेनेके पहले जैसे अपरिज्ञात था, तैसे परिणामके कृपासे अपरिज्ञात हो जाता है। यह भूत सत्व रज और तमोगुणका विकार लेकर पांच आकार धारण किया है। उन सबका नाम-आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी है। इन सभों का एक एक गुण भी है। आकाशमें शब्द गुण; वायुमें शब्द और स्पर्श गुण, तेजमें शब्द, स्पर्श और रूप गुण; जलमें शब्द स्पर्श, रूप और रस गुणः पृथिवीमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध गुण है। इस दृश्यमान जगत्में जो तुम देखोगे, वह सबही इन भूतोंके अन्तर्गत हैं। जब यह सब कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ था, तबही अपरिणामी अखण्ड ब्रह्म कहा जाता था। इसी सव-समष्ठिमें जब व्यष्टि भावका प्रारम्भ होता है, तबही दो विन्दु होते हैं,-पहला अपरिणामी और दूसरा परिणामी। एक ही ब्रह्मके सत और असत् रूपसे इन दोनों विन्दुमें परिणत होना ही विसर्ग ( वि= विशेष+सर्ग-सृष्टि ) है। इसी विसर्ग द्वारा अपरिणामीसे परिणामीका विस्तार प्रारम्भ होता है। यह प्रारम्भही भूतभाव है; और इस प्रारम्भकी वृद्धिका नाम उद्भव है। यह उद्भव संसारमुखमें सृष्टि वृद्धि करता है, और ब्रह्ममुख में सृष्टिका लय करता है; अर्थात् संसारमुखमें उन दोनों विन्दुसे बहुस्वकी सृष्टि होती है, और ब्रह्ममुखमें वह दो विन्दु मिलकर एक हो जाता है। यह सृष्टि और लय करनेवाला विसर्गही कर्म * है। * ४र्थ अः १७ वा श्लोककी व्याख्यामें कर्मका व्याख्या दिया हुआ है, देखो।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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