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________________ ३४८ श्रीमद्भगवद्गीता (४) 'अधिभूत'-वह जो कालत्रयसे खण्डित, षट् विकार-सम्पन्न* मर्त्य, नाशमान वा क्षरभाव है, बुद्धि जब आत्माको परित्याग करके इन सबको लेकर खेलती रहती है, तबही अधिभूत अवस्था कहा जाता है। (५) 'पुरुष'-पुरमें जो सोया हुआ है, उसोको पुरुष कहते हैं । पुर कहते हैं घग्को। चारो दिशामें दिवाल देकर आकाशको घेर लेने से भीतरमें जो जगह रहता है, उसोको पुर कहते हैं। इस देहरूप पुरके भीतर, चैतन्यरूपसे जो सो रहे हैं, वही पुरुष हैं, अर्थात् चित्तपटमें प्रतिविम्बित जो “चिच्छाया” वा अभिव्यङ्ग चैतन्य है, वही पुरुष है-वही चित्तरूप पुरमें सो ( प्राप्त होकर ) रहा है। ___ बुद्धि जब बहिर्मुखी वृत्ति परित्याग करके इस पुरुषको लेकर खेलता रहे, आलोचना करती रहे, और समझती रहे, तब "अधिदेव" अवस्था कहता है। अधि अर्थमें बुद्धि; यह पहले कह चुके हैं। अब 'देव' कहते हैं। द+एव= देव; 'द' शब्दमें स्थितिका स्थान अर्थात् योनि है, और 'एव' शब्द में यह है। बुद्धि जब "हमारी स्थितिका स्थान यह है"-कह करके उस ईश्वर स्वरूपमें मिल जानेके लिये चेष्टा करें वा मिल जाय, उस अवस्थाको ही "अधिदेव" कहते हैं । __ (६) "अधियज्ञ”-अधि = बुद्धि, यज्ञ =ग्रहण और त्याग है। यह जो बहिराकाशमें अमृतमय वायु विचरता है, वह वायु जब शरीरके भीतर प्रवेश करता है, तब शरीरके गरमीसे जलकर विष हो जाता है। विष होतेही उसकी बहिर्मुखी गतिका प्रारम्भ होता है, और धीरे धीरे वह विष बाहर निकल जाता है। यह जो अमृतमय वायुके आकर्षण और विषका विकर्षण है आपही आप होता रहता है। नासारन्ध्रके भीतर गल-गह्वरके नीचे पहुँचनेसे चावल कूटनेवाले ढंकी सरीखे एक यन्त्र है, और दो नली हैं-एक पायु नली और दूसरी * अस्ति, जायते वद्ध'ते, विपरिणमते, अपक्षीयते, घिनश्यतोति षट विकाराः ।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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