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________________ ३४६ श्रीमद्भगवद्गीता तक इस शान्तिमय अवस्थाका प्रकाश नहीं होता। जब स्त्री पुरुषको और पुरुष स्त्रीको प्राप्त होकर दोनोंकी आकांक्षा निवृत्ति कर चुके, दो मिलकर एक हो चुके-यह जो उद्घ गशून्य विश्राम-अवस्था वा चरितार्थ-अवस्था है, यही 'भाव' कहलाता है। गुरुवाक्यमें अटल विश्वासकी आसक्ति पर्य्यन्त भी जिस अवस्थामें लय हो जाती है, किसी वृत्तिका भी क्षयोदय नहीं रहता, ऐसे अकम्पन अवस्थाको भावावस्था कहते है। इतने दिन जो बुद्धि मनके किंकरी सदृश एकही शब्द-स्पर्श-रूपरस-गन्धका निश्चयता बार बार करा कर नवीन आकारमें उन सबको मनके पास ले जाकर मन-भुलानेवाला ( मनमतवारिया) मूर्ति कर देती थी, आज वही बुद्धि बहिमुखी वृत्ति छोड़ कर अपने प्राणके प्राण 'अहं' को आश्रय कर चुकी, इसीलिये स्वभावका और एक नाम "अध्यात्म” है। अधि = प्रधान; जिसका प्राधान्य है, वही प्रधान है। इस जगद्-व्यापारका भला बुरा जो निश्चय करे, वही प्रधान है। जगत् अनित्य और आत्मस्वरूपही नित्य है-इसे निश्चय करती है इस करके ही 'अधि' अर्थमें निश्चय त्मिका बुद्धि, और 'आत्म' अर्थमें “मैं” है; अर्थात् बुद्धिकी आत्ममुखी दृष्टिका नाम अध्यात्म है। मेरी बुद्धि. 'मैं' हो जानेका नाम अध्यात्म है। (३) "भूतभावोद्भवको विसर्गः कर्म संज्ञितः" - कालका भूत, भविष्यत , वर्तमान इन तीन अवस्थाके भीतर भूत अति सूक्ष्म, और भविष्यत अपरिज्ञात है। परन्तु इन तीन अवस्थाओं में ही कालका परिणमनता समझा जाता है। जो जन्म नहीं लिया है, वह किस प्रकारके आकारसे, कैसे और किस स्आनमें है, कुछ मालूम नहीं होता; मालूम करने का कोई उपाय भी नहीं है, परन्तु जैसे जन्म लिया, तत्क्षणमें हो वर्तमान हुआ। पुनः जन्म के साथही साथ कला, काष्ठा, क्षण, जैसे होते गये, वैसे ही वह भूतके गर्भमें पड़कर भूत हो
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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