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________________ ३४५ अष्टम अध्यया इतना आकार धारण कर लेता है कि, किस प्रकारसे, कहांसे, क्या करके, क्या होता है, और कौन करता है, वह समझमें नहीं आता। वही कूट और कूटस्थ है, उसीको 'तत्' कहते हैं। यह 'तत्' कैसा है ? यथा- "तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः दिवीव चक्षुराततम्"। इस “तद्ब्रह्म" को अन्धा बनकर देखना होता है । जो लोग देखते हैं, वह लोग आकाशमें एक विस्तारित (देखता हुआ) आँख सरोखे देखते हैं। जैसे आखके चारों दिशा सुफेद और बीच में काला है, वैसे इस तत्पदमें भी (चन्द्र, सूर्य, अग्निके प्रकाश बिना) कैसा एक अनिर्वचनीय प्रकाशको चारो दिशामें लेकर ठीक बीचमें बिजली घोरा हुआ गाढ़ा बैगनी चिकन काला गोलक प्रत्यक्ष होता है, उसीको विष्णुका परमपद कहते हैं। इस परमपदका और भी विवरण यह है "कोदण्डद्वयमध्यस्थं पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषा। कदम्बगोलकाकारं ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते"- अर्थात् गुण लगा हुआ दो धनुष के मुख मिलाकर देखनेसे जिस प्रकार ( अण्डा सरीखे ) आकार होता है, उसीके बीचमें स्थित कदमके फूल सदृश एक गोलक है; जो लोग ज्ञानचक्षु द्वारा यह गोलक देखे हैं, वह लोग ब्रह्मलोकमें गमन करते हैं। इसलिये इसका नाम विष्णुका परम पद है । वह जो डिम्बाकार के भीतर कदम्बाकार गोलक देख पड़ता है, वह दोनोंही सीमाशून्य और एक है। मस्तकके ऊपरमें जैसे आकाश सीमाबद्ध गोलक दिखाई पड़ता है, अथच वह चक्षुके दृष्टिमें थोड़ासा होनेसे भी महान् असीम है, यह भी तसे सीमाशून्य अवधि रहित महान् है; इसलिये इसको 'तद्ब्रह्म कहते हैं। (२) "स्वभाव"-स्व शब्दमें अपना और भाव शब्दमें क्या, वह नहीं कहा जा सकता। किन्तु कहनेसे जो लोग कहते हैं वह इस प्रकारका है,-जगत्में जीव स्त्री और पुरुष हैं। इस स्त्री स्त्रीमें वा पुरुष पुरुषमें भाव नहीं होता; क्योंकि, जबतक आकांक्षा रहेगी, तब
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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