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________________ ३३० श्रीमद्भगवद्गीता वान हैं। ज्ञानवानसे ज्ञानी होना होय तो बहुत जन्म * अतिवाहित करने पड़ता है, ज्ञानी होना ही इस श्लोकको "मां प्रपद्यते” अवस्था है; अर्थात् "मुझको प्राप्त होना” वा आत्मस्वरूपप्राप्त अवस्था है। इस अवस्था प्राप्त होनेसे, सबही वासुदेव है-इस प्रकारका अभेद ज्ञानसे सर्वत्र आत्मदृष्टि स्थापन होता है। इस प्रकारके आत्मभाव-प्राप्त पुरुष ही महात्मा हैं, महात्मा अति दुर्लभ है। अर्थात् तीसरे श्लोक के "कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः” इस वाक्यानुसार बहुत कम लोग ही, सहस्रों सिद्धके भीतर कहीं एक आध शरीर-'मैं' को प्राप्त होते हैं। इस कारण करके उक्त अवस्थाप्राप्त महात्मा पुरुष दुर्लभ हैं ॥ १६ ॥ कामैस्तैस्तहृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः। तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ २० ॥ अन्वयः। तैः तः (धन जनयशो कीतिप्रभृतिविषयः नानाविधेः) कामैः ( कामनाभिः हृतज्ञानाः ( अपहृतविवेकविज्ञानाः जनाः ) तं तं नियम ( देवताराधने प्रसिद्धो यो यो उपवासादिलक्षणः नियमः) आस्थाय (आश्रित्य ) स्वया । स्वकीयया ) प्रकृत्या ( स्वभावेन, जन्मान्तराजितसंस्कारविशेषेण इत्यर्थः) नियताः ( वशोकृताः सन्तः ) अन्यदेवताः ( सर्वात्मनः बासुदेवान् व्यतीरिक्तान् देवताः) प्रपद्यन्ते ( भजन्ति ) ॥ २० ॥ अनुवाद। लोग ( धन, जन, यश, कीत्ति प्रभृति विषयों के ) नाना प्रकार के कामनासे हृतज्ञान होकर, अपने स्वभावके वश में बाध्य हो करके उस उस कामनाके अनुरूप नियम अबलम्बनपूर्वक दूसरे देवतोंका आराधन करते हैं ।। २० ॥ * बहुत जन्म अर्थात् ६ छ अः ४ वें श्लोककी व्याख्याने अनेक जन्मका अर्थ देखो। उसको छोड़ करके प्राकृतिक आवरण भेद करना भी एक एक जन्म है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनन्दमय यह पांच कोष हो आवरण है। अन्नमय कोष हो स्थूल शरीर; प्रागमय, मनोमय और विज्ञानमय कोष ही सूक्ष्म शरीर; और आनन्दमय कोष ही कारण शरीर है। इस सूक्ष्म शरीरका एक एक आवरण भेद करके तत्तदूर्ध्व आवरणमें प्रवेश करना भी साधकका एक एक जन्म है ॥ १९॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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