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________________ ३२६ सप्तम अध्याय ज्ञानी-ये सबके सब उदार ( महान् हैं ) क्योंकि, ये सब ही प्राकृतिक तत्त्वको परित्याग करके एकमात्र परमात्म तत्त्वका अवलम्बन करते हैं, अतएव १४वें श्लोक अनुसार क्रिया करनेसे इन सबको माया की आवरणमें नहीं पड़ने होता। यह सबके सब भगवान्के प्रिय हैं। .परन्तु ज्ञानीके लिये थोड़ा बहुत विशेषत्व है। आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी ये तीनों "एकभक्ति” नहीं हैं, कारण कि इन सब (प्रत्येक ) का ही भगवानको अक्लम्बन करके एक न एक उद्देश्य पूरण कराय लेनेका अभिलाष है; किन्तु ज्ञानीके कोई अभिलाष ही नहीं है, परं • वा परमात्मा ही ज्ञानीका सब कुछ है। परमात्मा परब्रह्म ही सर्वो-. त्तम गति है; उसके ऊपर और कोई गति नहीं है। ज्ञानी युक्तचित्त होकर इस सर्वोत्तम गतिको आश्रय करके रहते हैं, दूसरा और कुछ ज्ञानीके हृदयमें स्थान नहीं पाता। इस कारण ज्ञानी अात्मसदृश वा आत्माका स्वरूप है ॥ १८ ॥ बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ १६ ॥ अन्वयः। ज्ञानवान् बहूनां जन्मना अन्ते ( समाप्ती ) सर्वे वासुदेव इति ( सर्वात्मदृष्ट्या ) मां (सर्वात्मानं ) प्रसद्यते; सः महात्मा (अपरिच्छिन्नदृष्टिः ) सुदुर्लभः ॥ १९ ॥ अनुवाद । ज्ञानवान् बहुत जन्मके बाद “सबही वासुदेव" इस प्रकारसे मुझको प्राप्त होते हैं, इस प्रकारका महात्मा अति दुर्लभ है ॥ १९ ॥ व्याख्या। अात्मा ही सत् है, और आत्मा बिना सब कुछ "असत् है-इस ध्र व सत्यको समझ करके जो पुरुष एकमात्र परमात्मसेवामें रत होते हैं, वही पुरुष ज्ञानवान हैं; और जो पुरुष उस सत्य को अपरोक्षानुभूतिसे प्रत्यक्ष करके आत्मस्वरूप लाभ करते हैं, वही पुरुष ज्ञानी हैं। अतएव आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी यह सबही ज्ञान
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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