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________________ सप्तम अध्याय ___३३१ व्याख्या। सब कोई ज्ञानवान नहीं हो सकता। कारण यह है कि सहस्रों पुरुषके भीतर कोई एक पुरुष सत्पथमें खड़ा होता है, सत्पथमें खड़ा होकरके भी सहस्रोंके भीतर कोई एक जन अभेद ज्ञान लाभ करता है, और दूसरे दूसरे लोग भेदज्ञानसे मोहित होकर धन, जन, यश, कीर्ति विषयके नाना प्रकार कामनाके फांसमें पड़कर हतज्ञान हो जाता है। अतएव उसी उसी कामना पूरणके लिये चेष्टा करके कर्म-संस्कारकी सृष्टि करता है। पूर्व पूर्व जन्मकी सचित यह कम-संस्कार ही उन सबकी अपनी प्रकृति है। मनुष्य अपने अपने इस प्रकार प्रकृतिसे ही वशीभूत हो करके अवश भावसे कार्यमें नियोजित होते हैं, परन्तु भेदज्ञानसे अात्महारा हो जानेके लिये मूल परमात्मतत्त्वको पकड़ नहीं सकते, और उन उन कामना साधनोपयोगी उपवासादि रूप जो जो नियम प्रवृत्ति शास्त्रमें लिखा हुआ है, उन सब नियमका आश्रय करके उन उन कामनाओंकी अधिष्ठात्री दूसरे दूसरे देवतोंके आराधनमें प्रवृत्त होते हैं ॥ २० ॥ यो यो यां यां तनु भक्तः श्रद्धयाचितुमिच्छति । तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहं ॥२१॥ अन्वयः। यः यः ( कामी ) भक्तः ( सन् ) श्रद्वया यां यां तनु ( देवतारूपां मदीयामेव मूत्ति ) अच्चितु इच्छति (प्रवृत्तो भवति ), तस्य तस्य ( का मिन ) तां एव ( तत्तन्मूत्तिविषयां एव ) अचला श्रद्धां अहं विदधामि ( स्थिरीकरोमि ) ।। २१ ॥ अनुवाद। जो जो ( कामी ) भक्त हो करके श्रद्धा सहकार जिस जिस देवमूत्ति को अर्चना करनेके लिये प्रवृत्त होता है, मैं उन सबको उसौ मूत्ति विषयमें ही अचला श्रद्धा देता रहता हूँ ॥ २१॥ व्याख्या : परमात्मा देव, मनुष्य प्रभृति सब जीवोंके अभ्यन्तर (भीतर ) में “मैं” रूपसे वर्तमान है। इसलिये, जिस किसी देवता का ही अर्चना किया जाय, एक “मैं” का ही अर्चना करना होता,
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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