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________________ सप्तमोऽध्यायः -- - श्रीभगवानुवाच । भय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युजन्मदाश्रयः । असंशयं समग्र मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥१॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । हे पार्थ! मयि आसकमनाः ( सन् ) योगं युजन् ( मनः समाधानं कुर्वन् ) मदाश्रयः ( मां एव आश्रयं प्राप्य ) त्वं ) यथा ( येन प्रकारेण ) समय (समस्तं विभूतिबल-शक्त्यैश्वर्यादिगुणसम्पन्नं) मां ( परमात्मानं ) असंशयं ज्ञास्यसि तत् शृणु ॥ १॥ . अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं। हे पार्थ ! हममें आसक्तमना होकर योग अभ्यास करते करते मुझको आश्रय पाके जिस प्रकारसे मुझको समग्र भावसे संशय रहित हो कर जान सकोगे उसे श्रवण करो ॥१॥ व्याख्या। "मयि आसक्तमना:” हो करके (मनको आत्ममन्त्र के साथ एकमात्र आत्मामें-तत् पदमें संयुक्त करके ) योग अभ्यास (ब्रह्मनाड़ीमें प्राणचालना) करना ही कर्म-साधन मार्गके पहिले क्रम है। इस कर्म सम्बन्धमें जो जो कहनेको है उसे पूर्व अध्यायमें कह कर, श्रीभगवान ६ ष्ठ अध्यायके शेष श्लोकमें देखला दिये हैं कि, कर्म भक्तिमिश्रित होनेसे ही कर्मका चरम फल जो युक्ततम अवस्था है, उसकी प्राप्ति होती है। क्योंकि "मयि आसक्तमना:" होकरके योग अभ्यास करते करते ही-'मदाश्रयः (आपही आप अपनेका श्राश्रय) होना होता है। अर्थात् साधक अपना हेराया हुआ धन परमात्माको आश्रय रूपसे प्राप्त होते हैं। इसका अर्थ यह है कि, प्राणक्रिया शान्त हो आनेके पहले जो सर्वशक्ति कारण कूटस्थ पुरुष रूपसे दूर पर लक्ष्य होते थे। अब प्राणक्रियाके स्थिर हो जानेसे
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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