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________________ ३१० श्रीमद्भगवद्गीता वह पुरुष समीपवत्ती होते हैं, साधकके चैतन्यसत्त्वा अवाधतः उन्हीमें जा पड़ता है, वही एकमात्र आश्रय होते हैं । इस प्रकारसे समीपवर्ती होनेका नाम उपासना ( उपसमीप+आसन= स्थिति ) है। इसलिये षष्ठ अध्यायमें कर्म शेष हो जानेसे ही सप्तम अध्यायमें इस उपासनाका प्रारम्भ हुआ है। उपासना ही साधन मार्गका द्वितीय क्रम है। इस उपासना द्वारा ही परमेश्वरके विभूति, बल, शक्ति, ऐश्वर्य प्रभृति समग्र गुण निःसंशय रूपसे जाना जाता है,-मिल भी जाता है, अति मिलन करके जैसे लोहेमें अग्निका संक्रम है। जिस प्रकारसे जाना जाता है, वही इस अध्यायमें भगवान उपदेश करते हैं। अर्जुन ( साधक ) अब उसी उपदेश सुनने का अधिकारी हुये हैं, और उसे ग्रहण करने में भी समर्थ हैं, वही समझानेके लिये भगवानने उनको पार्थ कह करके सम्बोधन लिये हैं, अर्थात् अर्जुन जो मातृस्वभाव गुण करके भाकर्षण-शक्ति बलसे इच्छानुसार एकभावको त्याग करके दूसरे भाव ग्रहणमें समर्थ हैं, इस इसारामें उतना ही समझा दिया गया है ॥ १॥ ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥२॥ अन्वयः। अहं ते (तुभ्यं ) इदं सविज्ञानं ( विज्ञानसहित ) ज्ञानं अशेषतः वक्ष्यामि ; यत् (ज्ञानं ) ज्ञात्वा इह भूयः अन्यत् ज्ञातव्यं ( पुरुषार्थसाधनं ) न अवशिष्यते ॥ २ ॥ अनुवाद। मैं तुमको विज्ञानके साथ यह ज्ञान अशेष करके कहूँगा, जिसके जाननेसे इस जगतमें और कुल भी जाननेको बाकी न रहेगा ॥ २॥ व्याख्या। कर्मको अतिक्रम करके उपासनामें प्रवृत्त होनेसे अपरोक्षानुभूतिमें (निजबोध करके ) ज्ञान और विज्ञान जाना जाता है; जाननेको और कुछ भी बाकी नहीं रहता। साधक अब उसी
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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