SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८ श्रीमद्भगवद्गीता हितेन ) अन्तरात्मना ( अन्त:करणेन ) मा ( परमात्मानं ) भजते; सः सर्वेषां योगिना अपि युक्ततमः मे मतः ।। ४७ ॥ ___ अनुवाद। जो साधक श्रद्धावान् होकरके मद्त चित्त द्वारा हमारा भजन करते हैं, वही पुरुष सब योगीके भीतर युक्ततम है यही हमारा अभिप्राय है ।। ४७ ।। व्याख्या। भक्त ही भगवानको आदरवाले चीज है । जो श्रद्धावान् होके अर्थात् ऐकान्तिक आग्रहके साथ योगानुष्ठान द्वारा अन्तरात्माको (चित्तको वा चित्तप्रतिविम्बित विम्बको) परमात्माके भीतर (परम पदमें ) प्रवेश कराते हैं, तब उनको उस परमपद बिना और दूसरा कोई अवलम्बन नहीं रहता, इसलिये आपही आप उसी एक आत्माका ही भजन होता रहता है, वही भक्त है, वही युक्ततम अर्थात् श्रेष्ठ है, क्योंकि योगियोंके जितने प्रकारकी अवस्था होती है, उसके भीतर यह अवस्था सबसे ऊंचा है, और वहो आत्माके अभिमत अर्थात् आत्माके समान है, आत्मामें और उनमें प्रभेद नहीं रहता, वह आत्मा हो जाते हैं। - इस श्लोकमें श्रीभगवान्ने भक्तियोगानुष्ठानसे योगी होनेका ही उपदेश दिया है ॥ ४७॥ .. "प्रात्मयोगमवोचाद् यो भक्तियोगशिरोमणिम् । त वन्दे परमानन्द माधवं मक्तसेवधिम्"। इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंघादे अभ्यासयोगो नाम पष्ठोऽध्यायः। , -:
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy