SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८६ श्रीमद्भगवद्गीता शनैः शनैरुपरमेबुद्धयो धृतिगृहीतया। आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न विचिदपि चिन्तयेत् ॥ २५ ॥ अन्वयः। (थोगी ) धृतिगृहीतया (धैय्येण युक्तया ) बुद्धया शनैः शनैः ( अभ्यासक्रमेण, न तु सहसा इत्यर्थः ) उपरमेत् ( उपरति कुर्य्यात् ); मनः आत्मस्थं कृत्वा किञ्चिदपि न चिन्तयेत् ॥ २५ ॥ अनुवाद। ( योगी ) धैय्यंयुक्त बुद्धद्वारा धीरे धीरे उपरत होवेंगे, मनको आत्मामें सम्यक् स्थापन करके कुछ भी चिन्ता न करेंगे ॥ २५ ॥ व्याख्या। धैर्य सहकार बुद्धिको चलायके अर्थात् ठीक ठीक गुरूपदिष्ट विधान अनुसार क्रिया होतो है या नहीं, अनुश्रण (सर्वदा) उस पर सतर्क रहके, अति धीरे धीरे उपरति करना होता है, अर्थात् मनको विषयसे निवृत्त करना पड़ता है। धीरे धीरे, इसका अर्थ यह है कि, जल्दी जल्दी न करके क्रम अनुसार एक चक्रसे दूसरे चक्र में, वहांसे और एक चक्रमें, इस रीतिसे प्राणको ऊर्द्धमें ले जाके धारण करना होता है, कारण कि-प्राण ही मनका नियन्ता है; प्राणके चंचलता-स्थिरतादि अवस्था भेदसे मनका भी तद्र प अवस्था प्राप्ति होती है। प्राणके प्रथमतः अति वेगके साथ ऊर्द्ध में चालन करनेसे योग नहीं होता, रोग होनेकी सम्भावना होती है; क्योंकि क्रिया-विहीन साधारण अवस्थामें नाड़ी-पथ समूह क्रूरवायु और श्लेष्मासे रुद्ध रहता है, इसलिये प्राणवायुको पहले ही वेगके साथ ऊंचेमें प्रेरणा करनेसे वह वायु पूर्ण वेगसे आके उस रुद्ध पथमें धक्का देता है; परन्तु उस धक्कासे पथ परिस्कार न होनेसे नाड़ी-चक्र समूह क्षुब्ध और विपर्यस्त हो पड़ता है, और उल्टी उत्पत्ति होती है। इसलिये उपदेश है कि धीरे धीरे उठना होता है। प्रथमतः स्वभावके वशमें रह करके वायुको धीरे धीरे कौशल क्रम अनुसार उठा ला करके, यथा नियममें निश्वास प्रश्वास चालन द्वारा मूलाधारादि चक्र क्रममें वायुको भीतरमें संयत
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy