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________________ षष्ठ अध्याय २८७ करना पड़ता है । इस प्रकार करनेसे भीतर में एक तेजका संचार होता है; जिसमें नाड़ीपथ सब परिस्कार होता है, और वह संयतवायु उसी उसी पथमें प्रवेश करके शरीर को वायुसे परिपूर्ण करता है, वायु का आलोड़न भी मिट जाता है, प्राण धीर सूक्ष्म प्रवाहसे ब्रह्मनाड़ीमें बहता रहता है, मन उपरति प्राप्त होता है अर्थात् विषयमुखी वृत्ति छोड़के चंचलताको परित्याग करता है । उसी समय मनको 'आत्मसंस्थ' करना होता है, अर्थात् आत्मामें - कूटस्थ तारकब्रह्ममें सम्यक् प्रकार करके स्थिर करना होता है; लक्ष्य प्रवाह उन्हीं में प्रवेश कराने पड़ता है, किसी प्रकारकी चिन्ता न करना चाहिये। इस अवस्था में किन्तु स्मृति-संस्कार अति सूक्ष्माकारसे अनजान भावसे आकर मन को आक्रमण करके विच्युत करनेका ( पिछाड़ी हटाय देनेकी) चेष्टा करता है, कृतकार्य्य भी होता है; उससे निष्कृति पानेका उपाय श्रीभगवान् पश्चात्के श्लोकमें ही उपदेश किये हैं ॥ २५ ॥ यतो यतो निश्चरति मनश्च चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ २६ ॥ अन्वयः । चंचलं ( अत्यर्थ चलं अतएव ) अस्थिरं मनः यतः यतः ( यस्मात् यस्मात् शब्दादेर्निमित्तात् ) निश्चरति (स्वभावदोषान्निर्गच्छति ), ततः ततः (तस्मात् शब्दादेनिमित्तात् ) एतत् ( मन ) नियम्य ( प्रत्याहृत्य ) आत्मनि एव वशं नयेत् ( स्थिरं कुर्य्यात् ) ।। २६ ॥ अनुवाद | चंचल और अस्थिर मन जिस जिस कारण से निर्गमन करेगा, उसी ससी कारण से उसको घुमायके आत्मामें लाकर वशमें लावेंगे ।। २६ ।। व्याख्या । स्मृति - संस्कार मनमें शब्दादि किसी एक विषयको जगा देके ज्योंही मनको आत्मच्युत करता है, त्योंही वह मालूम हो जाता है। तब वैराग्य भावना से उस उस विषय के स्वरूप (असारत्व) दर्शन करके उससे मनको फिर आत्मामें ही घुमा लाकर वश करना
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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