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________________ षष्ठ अध्याय २८५ इस प्रकार दृढ़ अध्यवसाय (पण ) द्वारा यत्न करना पड़ता है, चेष्टा करने होता है, करनेसे ही आयत्त भी हो जाता है ॥ २० ॥ २१ ।। ॥ २२ ॥ २३ ॥ संकल्पप्रभवान् कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः। मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ २४ ॥ अन्वयः। संकल्पप्रभवान् सर्वान् कामान् अशेषतः (निलैंपेन सवामनt) त्यकत्वा, मनसा एव इन्द्रियग्रामं (इन्द्रियसमूह ) समन्ततः ( सर्वतः ) विनियम्य (विशेषण नियमनं कृत्वा) (सः योगो योक्तव्य इति पूर्वणान्वयः) ।। २४ ।। - अनुवाद । संकल्पजात समुदय कामनाको सम्पूर्ण रूप त्याग करके तथा मनके बारा इन्द्रिय समूहको सर्व विषयसे उठा लाकर योगाभ्यास करना होता है ॥ २४ ॥ व्याख्या। जिस नियममें योग अभ्यास करना होता है, इस श्लोकमें वही कहा हुआ है। यथा नियममें आसन पर बैठ करके विषय-चिन्ता और प्राप्तिकी इच्छा मात्रको एकबारगी परित्याग करके मनको कूटस्थमें नियुक्त करनेसे ही इन्द्रिय समूह आपही आप निय. मित होते हैं। क्योंकि, समुदय इन्द्रिय मनहीको अनुगमन करता है। इसलिये मन जिस जिस विषय में जाता है, उस उस विषय भोग करनेवाला इन्द्रिय भी तत्क्षणात् क्रियामुख होता है। किन्तु मन यदि विषय त्याग करके अविषयमें अर्थात् आत्मतत्त्वमें संलग्न होय, तो इन्द्रिय समूह विषयको अवलम्बन स्वरूप न पायके सर्व विषयसे निवृत्त और निष्क्रिय होता है। मन द्वारा मन ही मनमें इन्द्रिय निग्रह करना ही, इन्द्रिय-निग्रहका एकमात्र उपाय है, दूसरे उपायसे नहीं होता, मिथ्याचारी होना पड़ता है ॥ २४ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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