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________________ २८४ श्रीमद्भगद्गीता सुख अतीन्द्रिय अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय और मन के अतीत है, इन सबसे वह सुख अनुभवमें नहीं आ सकता, अर्थात् संकल्पात्मक मनकी क्रिया रहनेसे उस सुखका उदय होता ही नहीं, इसलिये उस सुख वाणीमें कह करके समझानेकी कोई युक्ति नहीं-अव्यक्त है; यह सुख बुद्धिप्राह्य है, अर्थात् संकल्प विहीन निश्चयात्मिका वृत्तिसे ही अनुभवमें आता है; और भी यह सुख आत्यन्तिक है, अर्थात् अनन्त--भोगसे शेष नहीं होता, और भोग करनेसे आत्मतत्त्वसे विचलित भी होना नहीं होता. यह सुखावस्था ही योगशास्त्रके प्रानन्द-अवस्था, सम्प्रज्ञात समाधि का तृतीय स्तर है। इसके बाद और एक अवस्था आती है, वह प्राप्त होनेसे, उसके बाद प्राप्त होनेको और कुछ नहीं रहता; वही प्राप्तिकी प्राप्ति-पराकाष्ठा स्थिति है, यही अपनेमें आप रहनाअवस्था, योगशास्त्रका अस्मिता-अवस्था, सम्प्रज्ञात समाधिका चतुर्थ और शेष स्तर है। इस चतुर्थ अवस्थाके बाद वृत्ति-विस्मरण अवस्थापरिपूर्ण ज्ञानके परिपाकके लिये अज्ञान अवस्था कैवल्य वा निर्वाण अवस्था आती है; उस अवस्थामें गुरुतम दुःखसे भी विचलित होना नहीं पड़ता अर्थात् तब और मायाविकार स्पर्श कर नहीं सकता, किसी प्रकारका मालूम करनेका व्यापार ही नहीं रहता, अन्तःकरण ही नहीं है, तो जाने कौन ? इसलिये इसको असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। इस अवस्थाको लेके साधक अपने शेष निश्वासको फेंकनेसे ही अपुनरावृत्ति गति-लाभ करते हैं । अतएव संसारके हर्ष-विषाद रूप जो दुःख है उसके संयोगमें और उनको आना नहीं पड़ता। इसी कारण करके योगको ‘दुःखसंयोगवियोग" कहा हुआ है। इसीलिये यह योग योक्तव्य अर्थात् अभ्यास द्वारा आयत्त करना सर्व जनको ही उचित है। अभ्यासके प्रथममें आयास ( कष्ट ) है कह करके त्याग करना उचित नहीं; निर्वेद-रहित चित्तसे अर्थात् वेद-विहित उत्साह तथा उद्यम सहकार, और निश्चय द्वारा अर्थात् "करुंगा ही करुंगा"
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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