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________________ २८३ षष्ठ अध्याय जब शिरा प्रशिरा आदि सब वायु-पूर्ण हो आवे, फुसफुसके क्रिया धीर भावसे सम्पन्न होते रहें, शरीरमें किसी प्रकारकी चंचलता वा उद्वग न रहे, तब मन भी सम्पूर्ण रूपसे पांचों चक्रके सम्बन्ध त्याग कर उठ आके श्राज्ञामें स्थित होता है, इसीको ही चित्तकी निरुद्ध अवस्था कहते हैं। इस अवस्थामें आनेसे नीचे वाले आकर्षण शक्ति निस्तेज हो जानेसे, स्वभावके वशमें मन आपहो आप ऊर्द्धदिशामें आकर्षित होता है, और सहस्रारमें उठ जाता है। निरुद्ध (बहिर्विषय-व्यापार-परिशून्य ) चित्त सहस्रारमें उठ जा करके निर्वापित न होना पय॑न्त, भिन्न-भिन्न क्रममें उठता रहता है, वही एक एक क्रम योगका वा समाधिका एक एक अवस्था है; वही सब अवस्था हा २०२२ श्लोकों पर पर व्यक्त किया हुआ है। योगसेवा द्वारा ( क्रिया करते करते ) चित्त निरुद्ध होनेके बाद पहले ही उपरम प्राप्त होता है अर्थात् विषयाकर्षण की खींचाई मिट जानेसे स्थिर होता है; उस स्थिर अवस्था बाहाल रखनेके लिये और किसी प्रकार नवीन चेष्टा करना नहीं पड़ता; परन्तु मनकी संकल्पक्रिया अब तक भी नष्ट न होनेसे एक आकांक्षा रहती है; वह श्राकांक्षा न मिटनेसे, वह क्या है, जाननेके लिये उस विषयमें एक विशेष प्रकारका तर्क उपस्थित होता है; इस कारण करके इस उपरम अवस्थाको योगशास्त्रमें वितर्क-अवस्था कहा हुआ है। यह वितर्क ही सम्प्रज्ञात समाधिका प्रथम स्तर है। तत्पश्चात् चित्त और थोड़ासा अग्रसर होनेसे, संकल्प-क्रिया अभिभूत हो पाता है, तव प्रात्मा द्वारा आत्मा को साक्षात् करके चित्तमें तुष्टि आता है। इस समय प्रात्मा क्या है, प्राकृतिक पदार्थसे उनका प्रभेद क्या है, वह अपरोक्ष स्वरूप ज्ञानसे विचार कर लेनेसे आकांक्षा मिट जातो है; इसीलिये इस अवस्थाको विचार-अवस्था कहते हैं। यह विचार ही सम्प्रज्ञात समाधिका द्वितीय स्तर है। इसके बाद एक प्रकारका सुख उदय होता है; वह
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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