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________________ ___ षष्ठोऽध्यायः .. श्रीभगवानुवाच। अनाश्रितः कर्मफलं कायं कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरनिन चाक्रियः ॥ १॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच। यः कर्मफलं अनाश्रितः ( अनपेक्षमानः सन् ) कायं कर्म करोति, सः संन्यासी च योगी च, निरग्निः न अक्रियः च न (संन्यासी योगी ) ॥ १॥ अनुवाद। श्रीभगवान कहते हैं, जो पुरुष कर्मफलका आश्रय न करके कार्य कर्म करते हैं, वही पुरुष, संन्यासी और योगी है; (बाहरमें ) निरग्नि और अक्रिय होनेसे हो संन्यासो और योगी हुआ नहीं जाता ॥१॥ . व्याख्या। (भगवान ५म अध्यायमें कर्म-योग और संन्यासयोगके विषय कह आयके, उपसंहारके तीन श्लोकमें सूत्र सदृश अति संक्षेप वाक्यमें योगके विषय जो कुछ कहनेका था, प्रथमसे शेषपर्यन्त सब कह चुके हैं। परन्तु किस तरहसे उन सबका साधन करना पड़ता है--अभ्यासमें लाना होता है, वो सब वहां नहीं कहे हैं। अभ्यास का वही नियम समूह ६ष्ठ अध्यायमें विशद करके कहते हैं। इसीलिये इस अध्यायका नाम अभ्यास योग है *।) ... पहले ही कहा हुआ है * * कि भीतरमुखी क्रियाके अनुष्ठानमें प्राणचालनका नाम कर्म है, और बहिर्मुखमें प्रारब्ध वश करके शरीरयात्रा निर्वाह करनेका नाम कार्य है। जो साधक इस कार्य * इस अध्यायको ध्यानयोग भी कहते हैं। इसीलिये श्रीमत् श्रीधरस्वामी कहते हैं कि-"चित्त शुद्धोऽपि न ध्यानं विना संन्यास मात्रतः। मुक्तिः स्यादिति षष्ठेऽस्मिन् ध्यान योगो वितन्यते" ॥ १॥ ** तृतीय अः १७ श श्लोककी व्याख्या और १९ श्लोककी टीका देखो ॥१॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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