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________________ २६० श्रीमद्भगवद्गीता और कर्माका अनुष्ठान करते हैं, परन्तु फलकी आकांक्षा नहीं रखते, सर्व कर्मफल वासुदेवमें अर्पण करते हैं, अपनेमें थोडासा भी नहीं रखते, सम्पूर्ण अनासक्त रहते हैं, एकाधारमें वही साधक संन्यासी और योगी दोनों हो हैं। श्रुति-स्मृति-योगशास्त्रमें निरग्नि और अक्रिय होके संन्यासी और योगी होनेका व्यवस्था कहा हुआ है। साधक ! जब चित्तपथमें तुम ब्रह्मनाड़ीके ठीक मध्यभागसे परम शिव में कुल-कुण्डलिनीकी मिलन और मूलाधारमें उनकी पुनस्थापन करने का अविरोधी क्रियामें मतवारा रहते हो, उस समयमें ही केवल तुमको कर्मफल छू नहीं सकता। इसके बाद क्रियाके अन्तमें भी जब तक तुम उस नशेमें विभोर होके बाहरवाला व्यापार सम्पन्न करते हो, तब तक भी कर्म फल तुमको स्पर्श नहीं करता। तुम्हारी इस अवस्थाको ही अनाश्रित कर्म फल भोग वाला अवस्था कहते हैं । जिस भाग्यवान के निरन्तर ( अविच्छेद ) इस अवस्था चलता रहता है, बीच बीचमें भंग नहीं होता, उसीको ही संन्यासी तथा योगी कहा जाता है। नहीं तो अग्निहोत्र-सन्ध्याबन्दनादि नित्यक्रिया और पितृश्राद्धादि नैमित्तिक क्रियासे अव्याहति लेकर बिना परिश्रमसे पराया रसोईके अन्नमें ( भिक्षा निमन्त्रणमें ) पेट चलाना, और आलसी बनकर मन ही मनमें विषय भोगके खेल खेलते हुये लोक चक्षुमें धूर डारके चतुराई करना, इसमें योगी वा संन्यासी बना जा नहीं सकता। तुम निश्चय जान रक्खो कि योगी संन्यासीके लिये सूर्यका उत्ताप बोधमें भी अग्निस्पर्श दोष लगता है, और स्वाभावतः इन्द्रियग्राह्य विषयमें पुनर्लक्ष्य करनेसे ही तुम्हारा संन्यास अथवा योग बन नहीं सकता है ॥ १॥ यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव । न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥२॥ अन्वयः। हे पाण्डव ! यं संन्यासं (सर्वकर्मतत् फलपरित्याग-लक्षणं परमार्थ
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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