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________________ श्रीमद्भगवद्गीता भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मा शान्तिमृच्छति ॥ २६ ॥ अन्वयः। यज्ञतपसां भोक्तारं सर्वलोकमहेश्वरं ( सर्वेषां लोकानां महान्त 'ईश्वरं ) सर्वभूतानां सुहृदं (निरपेक्षोपकारिणं ) मा ( नारायणं ) ज्ञात्वा शान्ति ( सर्वसंसारोपरति ) ऋच्छति ( प्राप्नोति ) ॥ २९ ॥ अनुषाद। इस प्रकारसे मुझको यज्ञ तपस्याका मोक्का, सब लोगोंके महान् ईश्वर और सर्व भूतोंके सुहृद् जान करके शान्तिलाम करते हैं ॥ २९ ॥ ___व्याख्या। (पूर्व श्लोकके अनुसार क्रिया करनेसे ही जो मुनिकी अवस्था होती है वह नहीं; ज्ञान होना चाहिये, ज्ञान न रहनेसे उस प्राणायामका फल वाजिगिरके वाजीके कुम्भक होवेगा। इसीलिये उसी ज्ञानकी कथा इस श्लोकमें कहते हैं )। योगी समाहित होके जब देखते हैं और समझते हैं कि, जितने प्रकारका यज्ञ और तपस्या किया जाता है, ( नारायण) विष्णुही उन सबके भोक्ता हैं,-भूः भूवः आदि जिन सब लोकमें मन्त्र विन्यास करके आत्म-प्रतिष्ठा करके आना पड़ता है, भगवान विष्णु ही उन सबके नियन्ता, और वही विष्णु ही सर्व प्राणियोंके हृदयमें ( अन्तर में) आत्मा रूपसे विराजित हैं, और "मैं' ही वही विष्णु रूपसे विश्वव्यापी हूँ; तब वह योगी सर्वव्यापी होके विष्णुमें मिश जाते हैं,-शान्ति पाते हैं और मुक्त हो जाते हैं ॥ २६ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे - . श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्यायः ।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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