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________________ २५१ पंचम अध्याय दुःखित नहीं होते; उनकी बुद्धि अचल अटल भावसे ही ब्रह्ममें अवस्थित, इसलिये मोहवर्जित है * । वह "अगाधबुद्धिरक्षुब्धः" ॥२० ।। बाह्यस्पर्शध्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखं । स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ २१ ॥ अन्वयः। बाह्यस्पर्शषु ( शब्दादि बहिविषयेषु ) असतात्मा (अनासक्त चित्तः) आत्मनि यत् सुखं ( तत् ) विन्दति; ( अतः ) सः ब्रह्मयोगयुक्तात्मा ( ब्रह्मयोगेन समाहितान्तःकरण: भूत्वा ) अक्षयं सुख अश्नुते ॥ २१॥ अनुवाद। बाह्यविषयमें अनासक्तचित्त पुरुष, आत्मामें जो सुख है उसीको लाभ करते हैं, तत् पश्चात् ब्रह्ममें समाहित होके वह अक्षय सुख भोग करते है ।। २१॥ व्याव्या। (ब्रह्मवित्की स्थिरबुद्धि और असमोह होनेका कारण निर्देश करने के लिये इस श्लोकमें कहा हुआ है कि, विषयासक्ति विहीन पुरुष शान्त होयके अक्षय सुख भोग करते हैं।) प्राणायामादि क्रिया द्वारा शरीर और मन शुद्ध होनेके पश्चात् । बाहरके शब्द-स्पर्श प्रभृति विषयसे मन उठ आके भीतर में प्रवेश करता है, तब और आंख खुलके ताकनेकी इच्छा करते नहीं, बाहरवाले किसीके प्रति मन जाता नहीं, आसक्ति भी रहती नहीं। यह अवस्था सोडासा साधनासे ही धारणामें आता है। इस समय कूटस्थके व्यापार प्रत्यक्ष करके मन प्राण सर्व इन्द्रिय आनन्दमें मोहित हो जाता है। इसीका नाम आत्म सुख लाभ। उस सुखको जिन्होंने जान लिये, वही समझ लिये; वह भाषामें व्यक्त होता नहीं। इस * "हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया। न हि संसारवाहीकमूढ़: सह समानता ।। यत् पदं प्रेप्सवो दीनाः शकाद्याः सर्वदेवताः। अहो । तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ॥" अष्टावक्रः ।।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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