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________________ २५० श्रीमद्भगवद्गीता सर्ग (सृष्टि ) है। जीव जब तक जीवित रहते हैं, तबतक शरीराभिमान रहनेसे विषय और इन्द्रिय संस्पर्श करके शारीरिक सुख-दुःखमें अभिभूत होते हैं; किन्तु देहत्याग करके चले जानेके पश्चात् उस मृत देहमें आत्माभिमान करके और सुख दुःख भोग नहीं करते, तब उस देहके ऊपर उनका आत्माभिमान निरस्त हो जाता है। ठीक वैसे जो लोग ज्ञानावस्थापन्न होते हैं, उनका शरीराभिमान एकदम दूर हो जाता है, इसलिये, वो लोग ब्रह्मभावमें अवस्थित रहनेसे, विषय और इन्द्रिय संस्पर्शसे उनके मनमें सुख दुःखादि कोई विकार उपस्थित नहीं होता; जीवितावस्थामें भी वह लोग अविच्छेद (समाने समान) ब्रह्मानन्दमें रहते हैं, इसीलिये वो सब महापुरुषों स्वर्गजयी हैं ॥ १६ ॥ न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य नोद्विजेत् प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसंमूढ़ी ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥२०॥ अन्वयः। ब्रह्मवित् स्थिरबुद्धिः (निश्चलबुद्धिः ) असंमूढः ( संमोहव जितः) ब्रह्मणि एब स्थितः ; अतः प्रियं ( ईष्टं ) प्राप्य न प्रहृष्येत् ( न हर्ष कुर्यात् ) अप्रियं (अनिष्टं ) च प्राप्य न उद्विजेत् ( न विषीदति ) ॥ २० ॥ अनुवाद। ब्रह्मविद् पुरुष स्थिरबुद्धि, मोहव जित, ब्रह्ममें ही अवस्थित हैं; इसी कारणसे वह प्रियवस्तु प्राप्त होके आनन्दित वा अप्रिय प्राप्त होके उद्विग्न नहीं होते ॥२०॥ व्याख्या। ( जो साधक ब्रह्मभावमें अवस्थित हैं, उनका लक्षण क्या, इस श्लोकमें वही कहा हुआ है)। साधारण लोग और साधनामें जो लोग सिद्ध नहीं हुये हैं, वह सब जिस जिस पदार्थको इष्टकर तथा अनिष्टकर ज्ञान करते हैं, ब्रह्मवित् प्रारब्ध भोगकालमें * वही सब वस्तु पाके आनन्दित अथवा * जगतमें रहके जो कुछ करना हो, उद्देश्यशुन्य होके कर चलनेका नाम प्रारब्ध भोग है ।। २०॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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