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________________ २५२ श्रीमद्भगवद्गीता अवस्थाके बाद ४र्थ श्रः २५ श्लोक अनुसार ब्रह्मयज्ञका प्रारम्भ होता है, अर्थात् साधक ब्रह्माग्निमें आत्माको आहुति देके ब्रह्म-समाधि लाभ करते हैं। इस समाधि भोग होनेके पश्चात् चित्तमें जो स्रोत बहती रहती है, उसीको ब्रह्मानन्द कहते हैं। यह ब्रह्मानन्द जिन्होंने एक दफे भोग किये हैं, उनका मन विषयमें और रहता नहीं, उसी आनन्दमें ही मतवारा रहता है; उसका और शेष होता नहीं, इसलिये वह अक्षय सुख भोग करते हैं। इस कारण करके ब्रह्मवित् संसारके प्रिय तथा अप्रिय विषयमें मोह प्राप्त होते नहीं। अतएव, साधक ! तुम भो बाहरके विषयसे सब इन्द्रियोंको निवृत्त करो, यह इङ्गित किया गया ॥२१॥ ये हि सस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । श्राद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ २२ ॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! हि ( यस्मात् ) ये भोगाः संस्पर्शजाः ( बिषयेन्द्रियसंस्पर्शेभ्यः उत्पन्नाः) ते एव दुःखयोनयः ( आध्यात्मिकादेः दुःखस्य कारणभूताः) आद्यन्तवन्तः ( उत्पत्तिनाशशीला: ); (अत8) बुधः ( विवेकी ) तेषु न रमते ॥ २२ ॥ अनुवाद। जो सब भोग विषय और इन्द्रिय संयोगसे उत्पन्न, सो समस्त ही दुःखके कारण और आदि-अन्त विशिष्ठ ( भनित्य ) है; हे कौन्तेय ! इसीलिये विवेकी पुरुष उन सब भोगमें आसक्त होते नहीं ।। २२ ॥ व्याख्या। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध-ये पांच विषय, कर्ण, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, और नासिका इन पांच इन्द्रियसे ही भोग होता है। प्रत्येक इन्द्रियके विषय भोग करने की शक्ति की सीमा है; उस सीमा अतिक्रम होनेसे ही उसमें और भोग सुख मिलता नहीं, दुःख उत्पन्न होता है, जैसे मिठाई खायके तृप्त होनेके पश्चात् और खाया जाता नहीं, वमन चेष्टा, शिरमें दर्द उठ कर कष्ट होता है; तैसे। एही है जगतके नियम । इसलिये विषयभोग-सुख मात्र ही अल्पस्थायी
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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