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________________ पंचम अध्याय २३७ आत्मभूतः आत्मा प्रत्यक्चेतन यस्य सः, सम्यग्दशत्यिर्थः ( सन् ) कुर्वन् अपि न लिप्पते ( न बद्धो भवति ) ॥ ७ ॥ असुवाद। योगयुक्त पुरुष विशुद्धचित्त विजितदेह, जितेन्द्रिय और सम्यग्दर्शी होनेसे कर्म करके भी ( कर्ममें ) लिप्त नहीं होते ॥ ७॥ व्याख्या। योगयुक्त साधक पूर्व श्लोकके क्रियानुसार ब्रह्ममें स्थिति लाभ करके उतर आयके फिर उठकर योगयुक्त होनेके पश्चात् विशुद्धात्मा होते हैं। अर्थात् विशुद्ध “मैं”—भावमें ही रहते हैं,ज्ञानाग्निसे उनके सब कर्म भस्मसात् होनेसे विजितदेह होते हैं, (४र्थ अः ३७ श्लोक देखो),-४र्थ अः ३६ श्लोक अनुसार संयतेन्द्रिय अवस्था प्राप्त होनेसे जितेन्द्रिय होते हैं, अर्थात् विषय-संस्पर्शमें श्रानेसे उनकी कोई इन्द्रिय भी विषयमें आसक्त नहीं होती, तथा ब्रह्मादि स्तम्ब पर्यन्त समुदाय भूतोंके आत्माभूत होयके सर्वदर्शी होते हैं। इस कारण करके उनसे प्रारब्ध सहयोगमें कर्म अनुष्ठित होनेसे भी उनको लिप्त होना नहीं पड़ता। चित्त चिज्ज्योति करके विशुद्ध होनेके. पश्चात् , उसमें और विषयका छापा नहीं पड़ता ॥७॥ नैव किञ्चित् करोमीति युक्तौ मन्येत तत्त्ववित् । पश्यन् शृन्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन् गच्छन् स्वपन् श्वसन् ॥ ८॥ प्रलपन् विसृजन् गृहन्नुन्मिपन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥६॥ अन्वयः। तत्त्ववित् युक्तः इन्द्रियानि इन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते इति धारयन् ( सन् ) पश्यन् , भृन्वन, स्पृशन, जिघ्रन् , अश्रन्, गच्छन् , स्वपन्, श्वसन, प्रलपन्, विसृजन्, गृह्णन्, उन्मिषन् निमिषन्, अपि “किंचित् करोमि" इति न एव मन्येत ॥ ८॥९॥ अनुवाद। तत्त्वविद् योगी, इन्द्रियगण ही स्व स्व विषयमें प्रवृत्त होता है, इस प्रकार धारण करके दर्शन, श्रवण, स्पर्शन, आघ्राण, आहार, गमन, शयन
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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