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________________ २३८ श्रीमद्भगवद्गीता (निद्रा), निश्वास त्याग, प्रश्वास ग्रहण, वाक्य कथन, त्याग, ग्रहण, चक्षुरुन्मलिन तथा निमोलन प्रभृति कार्य करके भी 'मैं कुछ करता हूँ' इस प्रकार मनमें नहीं करते ॥ ८॥ ९॥ ___ व्याख्या। जो साधक तत्त्वको जान चके और सतत आत्मभाव में युक्त हैं, उनके चित्त विशुद्ध रहनेसे उनको मायिक जगतके, “मैंमेरे" भावमें मोहित होना नहीं पड़ता, इसलिये प्रारब्धभोगके लिये देखना, सुनना प्रभृति जो कुछ इन्द्रिय व्यापार होय, उसमें उनको कत्तत्वाभिमान नहीं रहता। प्रारब्ध वश करके कृत कम्मका भला बुरा फल शरीरके उपर ही कार्यकरी होता है, उनके प्रशान्त भावको विचलित कर नहीं सकता। देखना, सुनना, छूना, सूचना, खानापंच ज्ञानेन्द्रियके क्रिया है। बात बतियाना, ग्रहण-करना, गमन करना, मलमूत्र त्याग करना,-पंच कम्र्मेन्द्रियोंके क्रिया है। निश्वास फेंकना, प्रश्वास लेना, ताकना, आंख-मुदना,-पंच प्राणके क्रिया है। सोना (निद्रा लेना ) अन्तरिन्द्रिय बुद्धि की क्रिया है ।। ८ ॥६॥ ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ १० ॥ अन्वयः। यः कर्मणि ब्रह्मणि आधाय ( निक्षिप्य ) संगं त्यकत्वा ( फलासक्तिरहितः सन् ) करोति, सः अम्भसा ( जलेन ) पद्मपत्रं इव पापेन न लिप्तते (न संवध्यते ) ॥ १०॥ अनुवाद। जो पुरुष समुदय कर्म ब्रह्ममें अर्पण करके संगत्याग पूर्वक अनुष्ठान करते हैं, वह पुरुष, कमल पत्रके ऊपरवाला जल सदृश, पापमें लिप्त नहीं होते ॥ १० ॥ व्याख्या। ६।७।८। श्लोकमें योगयुक्त, मुनि, ब्रह्मसंन्यास, पश्चात् फिर योगयुक्त होके तत्त्ववित् होना–साधनाके यह जो ऊर्द्धक्रम कहा गया, उस क्रम अनुसार अबतक भी जो तत्त्ववित नहीं हुये,
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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