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________________ २३६ श्रीमद्भगवद्गीता किये हैं ) वही यथार्थ देखनाको देखे हैं; वही पुरुष साक्षी स्वरूपसे द्रष्टा अर्थात् वही पुरुष ब्रह्मविद् है ॥ ५ ॥ संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमा'तुमयोगतः। योगयुक्तो मुनिब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति ॥ ६ ॥ : अन्वयः। हे महाबाही! तु (किन्तु) अयोगतः ( कर्मयोगं विना) संन्यासः दुःखं आप्तु ( दुःखहेतुः, अशक्यइत्यर्थः ) योगयुक्तः मुनिः ( ईश्वररूपमननात् मुनिः संन्यासी भूत्वा ) न चिरेण (क्षिप्रमेव) ब्रह्म (परमार्थसंन्यास) अधिगच्छति ( प्राप्नोति ) । ६॥ ___ अनुवाद। हे महाबाहो ! योग बिना संन्यास किन्तु दुःख प्राप्तिके हेतु होता है। जो कम्मयोगमें युक्त हुये हैं, वह मुनि होयके शीघ्रही ब्रह्मसाक्षात्कार ( परमार्थ संन्यास ) लाभ करते हैं ॥ ६॥ . व्याख्या। संन्यास और योग दोनोंका ही फल एक है सच, परन्तु योगानुष्ठान बिना संन्यास नहीं होता; क्योंकि योगही चित्तशुद्धिका एकमात्र उपाय है। अगरचे कोई योगानुष्ठान न करके संन्यास ग्रहण करे तो अवश होके उनको विषयकी खिंचाईमें पड़ा रहना पड़ता है, तब इन्द्रियवृत्ति सब प्रबल रहती है, इस सबबसे कुछ भी त्याग नहीं होता। किन्तु योगके द्वारा युक्त होनेसे, मन कूटस्थ पुरुषके दर्शन मनन द्वारा तद्गत हो जानेसे शीघ्र ही सब नाश हो जायके ब्रह्ममें स्थिति लाभ होता है। यह ब्रह्मस्थावस्था ही संन्यास है । (जबतक चित्तशुद्ध न होय, तबतक ही कर्मयोग संन्याससे पृथक् , पश्चात् दोनों ही एक है ) ॥ ६ ॥ योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुवन्नपि न लिप्यते ॥ ७ ॥ अन्वयः। योगयुक्तः विशुद्वात्मा (विशुद्धचित्तः ) विजितात्गा ( विजितदेह ) जितेन्द्रियः ( तथा ) सर्वभूतात्मभूतात्मा ( सर्वेषां ब्रह्मादीनां स्तम्बपर्यन्तानो भुताना
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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