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________________ २१६ . श्रीमद्भगवद्गीता ___ व्याख्या। मैं ही “मैं” वा ब्रह्म हूँ, यह दृढ़ धारणा ही ज्ञान है। एक मात्र कर्मयोगसे ही यह ज्ञान लाभ होता है। कोई कोई योगी इस ज्ञानमें दृढ़बद्ध होके कूटस्थ लक्ष्य करके चुपचाप बैठ रहके (प्राणक्रियामें लक्ष्य न देके) आत्माको ध्यान करते करते आत्मस्वरूपमें निष्ठा लाभ करते हैं अर्थात् मनको तन्मय करके स्थिर हो जाते हैं । इसीका नाम ज्ञानदापित अात्मसंयम है। ध्यानयोगमें इस प्रकार आत्मसंयम होनेसे दर्शन-श्रवणादि इन्द्रिय-कम्म, और श्वास-प्रश्वासउन्मेष-निमेषादि प्रा कर्म सब आप ही आप स्थिर हो जाता द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥ २८ ॥ अन्वयः। अपर सशितव्रताः ( सम्यक् शितानि तीक्ष्णोकृतामि व्रतानि येषां ते ) यतयः (यतनशीला8 ) द्रव्ययज्ञाः तपोयज्ञाः योगयज्ञाः तथा स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः च (भवन्ति इत्यर्थः ) ॥ २८ ॥ अनुषाद। अपर दृढ़व्रत यतिगण द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्यायज्ञानयज्ञका अनुष्ठान करते हैं ॥२८॥ * अत्यन्त सुखसंवाद अथवा अत्यन्त शोकसम्बादसे मनुष्य जैसे मोहको प्राप्त होता है, वैसे योग द्वारा जो सब योगी चित्तको वश कर चुके वह सब योगी आत्मध्यान करते मात्र ब्रह्मानन्द वेगसे अभिभूत होके तत्क्षणात् भाषावस्थामें उपनीत होते हैं। कर्मयोगसे भी यह अवस्था होती है, एकासनमें १७२८ बार चातुर्थिक प्राणायाम करनेसे ध्यानावस्था होती है, और २०७३६ दफे प्राणायाम करनेसे जो अवस्था होती है उसीको ही समाधि धा आत्मसंयम कहते हैं। इस समाधिसे ही "सोऽहं" ज्ञान आता है। संसाराभिमानी कल्पितात्माके एक दफे इस अवस्थाका भोग होनेसे ही, और उनको मायाको डोरी छू नहीं सकती। इसलिये आत्मसंयम रूप योगाग्निमें अज्ञानताकी आहुति देके ज्ञानके महाप्रकाशकी प्राप्तिका इशारा किया हुआ है ।। २७।।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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