SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . चतुर्थ अध्याय २१७ व्याख्या। जो सब साधक गुरूपदिष्ट क्रिया कलापको यतनसे साधन करते हैं, वही सब लोग यति कहाते हैं। जिन सब यतिको देश काल पात्रसे अथवा दूसरे किसी कारण करके नित्य नैमित्तक उपासना प्रायश्चित्तादि कर्मानुष्ठानके विघ्नोत्पन्न न हो, तथा जो सब यति यथा समयमें यथाकर्म नियमित रूप करके सम्पादन करना बिना दूसरा कोई कर्म नहीं करते, वही सब संशितव्रत यति हैं। वो लोग क्रियाकालमें यथाक्रम अनुसार द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्याय-ज्ञानयज्ञके अनुष्ठान करते हैं। पूण्यस्थानमें द्रव्य विनियोग करनेका नाम द्रव्ययज्ञ है। पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक् , आत्मा, काल, और मन-ये नौ प्रकार के द्रव्य है। मूलाधारादि छः स्थान ही पूण्यस्थान हैं। प्रथमतः जो कूटस्थको लक्ष्य करके कालके क्शमें रह करके वायुको आकर्षण कर लेके मनही मनमें मन्त्र संयोग पूर्वक प्रतिचक्रमें नियोग किया जाता है, तत् पश्चात् सर्वद्रव्यका सारभूत सहस्रारक्षरित अमृतको वैश्वानरमें अर्पण किया जाता है, उसीका नाम द्रव्ययज्ञ है। द्रव्ययज्ञ सम्पन्न होनेके बाद, साधक भूतप्रपञ्चके ऊपर तपोलोक प्राज्ञा चक्रमें उठ जाके मायिक आकर्षणको दमन करके चित्तकी चंचलताको नष्ट करते हैं; इसीका नाम तपोयज्ञ हैं । पश्चात् तपोयज्ञसे चित्तके विक्षेप भाव नष्ट होनेके बाद, साधक स्थिर धीर शान्त भावसे एकमात्र स्वस्वरूपको लक्ष्य करते हैं, तब केवल दृश्य और द्रष्टाका द्वन्द्व होता है, दूसरा सब पिछाड़ी पड़ा रहता है; इसीका नाम योगयज्ञ हैं। इस अवस्थामें जब प्रथम प्रथम वेदादि प्रणव, पश्चात् उससे वेदमाता गायत्री, परिशेषमें ऋगादि वेद अशरीरि वाणी करके आपही आप उच्चारित होता रहता है, उसको स्वाध्याय-यज्ञ कहते हैं ( स्वाध्यायसु-सुन्दर अर्थात् स्व स्वरूप +श्रा=प्रकृति अर्थात साधक + अध्याय - आलोचना), कारण यह कि त्वंरूपी साधक तथा तत् रूपी ईश्वरके
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy