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________________ २१५ चतुर्थ अध्याय व्याख्या। साधक आत्माको ब्रह्माग्निमें आहुति देनेके पूर्व में आत्म-ज्योतिके सहारासे अतीव सूक्ष्मदर्शी होते हैं ; तब अन्तरमें इन्द्रियवृत्ति समूह की उत्पत्ति, स्थिति और परिवर्तनके अतीव सूक्ष्म कारण समूहको प्रत्यक्ष करते हैं। उसी समय यदि आत्माको ब्रह्माग्नि में आहुति न देकर, अर्थात् अपनेमें आप मिल न जायके उन कारण सबको अपने वशमें लावें और आप स्थिति पदमें अटक रहें, ऐसा होनेसे, उनकी संयम अवस्था होती है । तब वह उन सबके द्रष्टा स्वरूप में अवस्थान करते हैं। तब वह देखते हैं कि, उनके मायिक शरीरके कर्णादि इन्द्रिय सकल पूर्ववत् और उनसे क्रियाशक्ति न पाके क्रियाशून्य अवस्थामें उस संयम रूप अग्निमें पड़के संयत होके अग्निरूप धारण किये हैं, ( इसीको ही संयमाग्निमें इन्द्रियों की आहुति कहते हैं ; और श्रोत्रादि इन्द्रियग्राह्य शब्दादि विषय समूह उस संयत अग्निरूप इन्द्रियोंमें आ पड़के आपही आप विलय प्राप्त होता है, इन्द्रियगणको और क्रियामुख कर नहीं सकता, (इसीको ही इन्द्रियाग्निमें विषयकी आहुति कहते हैं ) और भी देखते हैं कि, उनके संब ही अन्तःकरण विद्यमान हैं, लेकिन कोई और क्रिया करते नहीं, समस्त ही क्रियाशून्य अवस्थामें बैठे हैं। इस अवस्थामें आसक्तिका लेश मात्र न रहनेसे गुणमयी माया साधकके पास हार जाती है। समस्त गुणकी क्रिया भी विश्राम लेती है ॥ २६ ॥ सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे। आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ २७ ॥ अन्वयः। अपरे च सर्वाणि इन्द्रियकम्माणि प्राणकम्माणि ( च ) ज्ञानदीपिते आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ॥ २७ ॥ अनुवाद। अपर योगीगण सर्व इन्द्रियकर्म और प्राणकर्मको ज्ञानदीपित आत्मसंयम रूप अग्निमें आहुति दिया करते हैं ॥ २७॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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