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________________ २१४ श्रीमद्भगवद्गीता भी प्रबोध देना पड़ता है। पुनराय नवीन बीज लेके मणिपुरमें चित्रा के भीतर उठ आके भी दश-शक्तिको प्रबोधित करना पड़ता है। इस प्रकारसे अनाहतमें बारह, विशुद्ध में सोलह और श्राज्ञामें उठके दो शक्तिके साथ मिलके सामान्य विश्राम लेते हैं। छायाविहीन तेजस मूर्तिसे ही ये सब शक्ति प्रत्यक्ष होती है, इसलिये ये सब देवता हैं । इन सबके प्रबोधके समय, इच्छा न रहनेसे भी, साधकको ठोकर दे पाना पड़ता है। यह जो देवतनका ग्रहण और त्याग अर्थात् पूजन और विसर्जन है इसीको हो देवयज्ञ कहते हैं। पश्चात् जब कूटस्थ लक्ष्य होता है, तब साधकके त्वं” और कूटस्थक “तत्” इन दोनोंके संयोग होता है ; इन दोनोंके मिलनेका नाम योग है। इस कार्यको जो लोग करते हैं वह सबही योगी है। जब साधक अपने "भ्रम. मैं” को छोड़ देके "तत्" के "विशुद्ध मैं" में आ पड़ते हैं, तब तत्क्षणात् उनको स्व स्वरूप की प्राप्ति होती है। यह जो अपनेमें अपने पड़के अपने नशामें अपने रहना, इसीको ही यज्ञसे यज्ञ करना कहते हैं। साधकका यह जो ब्रह्ममें मिलकर ब्रह्मभावमें ब्रह्मत्व भोग है इस समय उनमें कोई उपाधि नहीं रहती; इसलिये “उप" उपसगसे ब्रह्मयज्ञकी ब्रह्माग्निमें उनके अहंत्व के "उपवन" की कल्पना की गई है ॥२५॥ श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति । शब्दादीन् विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ २६ ॥ अन्वयः। अन्ये श्रोत्रादोनि इन्द्रियाणि संयमाग्निषु जुह्वति; अन्ये शव्दादीन् विषयान् इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ २६ ॥ अनुवाद। कोई कोई श्रोत्रादि इन्द्रिय सकलको संयम रूप अग्निमें आहुति प्रदान करते हैं; कोई कोई शब्दादि विषय सकलसो इन्द्रियरूप अग्निमें आहुति प्रदान करते हैं ॥ २६ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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