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________________ २१३ चतुर्थ अध्याय देवमेवापरे यज्ञं योगिनः पय्युपासते। ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥ २५॥ अन्वयः। अपरे योगिनः दैवं एव यज्ञं पर्युपासते ( श्रद्धया अनुतिष्ठन्ति ); अपरे ( तु ) ब्रह्माग्नौ यज्ञेन ( ब्रह्मार्पणभित्याद्य क्त प्रकारेण तपायेन ) यज्ञं ( आत्मानं ) उपजुह्वति ( प्रतिक्षिप्यन्ति; सर्वकमणि प्रविक्षप्यन्तीत्यर्थः ) ॥ २५ ॥ अनुवाद। योगियोंके भीतर कोई कोई दैव-यज्ञका अनुष्ठान करते हैं; फिर कोई कोई ब्रह्माग्निमें यज्ञसे यज्ञको प्राकृति प्रदान करते हैं ॥ २५ ॥ व्याख्या। ब्रह्मार्पण रूप यज्ञ, सर्व प्रकार यज्ञसे श्रेष्ठ है; किन्तु साधक के अधिकारित्व भेद करके ज्ञानके उपायभूत नाना प्रकार यज्ञका अनुष्ठान करना पड़ता है; वह समस्त ही अंगाङ्गीभाव करके परस्पर सम्बद्ध है। २५-२६ श्लोकमें वही सब यज्ञ उल्लेख किया हुआ है। साधक योगी होकर विश्वभ्रमको ब्रह्माग्निमें आहुति देके कसे करके ब्राह्मीस्थिति लाभ करते हैं, और उस स्थिति के पूर्वापर साधकको कौन कौन अवस्था भोग करनी पड़ती है, वही बातें उन सब यज्ञ वर्णनसे उपदेश की गई हैं। साधक मात्र ही इन सबको अपनी क्रिया के साथ अच्छी तरह मिलाय लेकर अपनी कर्त्तव्य अषधारण करेंगे। साधक जब विश्वका स्थूलत्व छोड़के गंगा-यमुनाके भीतर सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरस्वतीमें कूदते हैं ( स्वरस्वती स्वरके आदि ', तब उनकी अपानकी खिंचाई घट जानेसे सहस्रार पर्यन्त समस्त कमल ऊर्द्धमुखी होता है। उस समय व्यञ्जनविहीन ब्रह्ममन्त्रके आश्रयसे मूलाधारग्रन्थि भेद करके भी, अभ्यासके दोष करके चार पन्नेके चार शक्तिको धोखा देनेकी युक्ति न पाके, ब्रह्ममन्त्रमें व्यजन दे डालते हैं; इसलिये उन चार शक्तिको प्रबोध देना ही पड़ता है। यहां से नवीन बीज लेके स्वाधिष्ठानमें वज्राके भीतर उ आकरके भी फिर असावधानताके लिये छः महा शक्तिके स्पर्शदोष में पड़के, उन सबको
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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