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________________ २१२ श्रीमद्भगवद्गीता कर्म ही यह हैं। गुरूपदेश अनुसार करके यज्ञार्थ कर्म अनुष्ठित होनेसे, रजो गुणके आधार स्वरूप पंचतत्व अतिक्रम हो जानेसे ही, कामना मिट जाती है, अतएव द्वन्द्वविमुक्त होके आज्ञामें स्थिर भी हुआ जाता है; इसलिये सर्व कर्म प्रकृष्ट रूप करके विलय पाता है, कोई बन्धन भी नहीं रहता ॥ २३ ॥ ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्बह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकमसमाधिना ॥ २४ ॥ अन्वयः। अर्पणं (येन करणेन ब्रह्मविद् अग्नौ हविः अर्पयति तद्) ब्रह्म, ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतं हविः ब्रह्म; ब्रह्मकर्मसमाधिना ( ब्रह्म एव कर्म; तस्मिन् समाधिर्यस्य तेन) तेन ( यज्ञका ) ब्रह्म एव गन्तव्यं (प्राप्यं, न तु फलान्तर मित्यर्थः ) ॥ २४ ॥ अनुवाद। अर्पण ब्रह्म, ब्रह्माग्निमें ब्रह्म कत्त क हुत वि ब्रह्म, ब्रह्मकर्ममें समाधियुक्त कर्ताको गति भी ब्रह्म ( सब ही ब्रह्म ) है । २४ ॥ व्याख्या। कर्म यज्ञके लिये आचरित होनेसे वह कर्म प्रकृष्ट रूप करके क्यों विलयको पाता है; उसका कारण यह है कि, मन ब्रह्मनाड़ीके भीतर प्रवेश करनेसे ज्ञान-ज्योतिके विकाशमें देखने और समझनेमें आता है कि, 'सर्व ब्रह्ममयं जगत्" इसलिये तब सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि आती है। इसलिये साधकके पास तब अर्पण अर्थात् शारीरिक करण समूह जिससे यज्ञकर्म सम्पन्न होता है, वह सब ब्रह्ममय है; सर्व शरीर व्यापी तेजोरूप जो वैश्वानर अग्नि है, वह भी ब्रह्ममय है; वह (आप) भी ब्रह्ममय है; उनका हवि अर्थात् प्राण और सहस्रारविगलित सुधा प्रभृति हवनीय पदार्थ भी ब्रह्ममय है; और उनकी आहुतिदान रूप हवन क्रिया भी ब्रह्ममय है। इस प्रकारसे ब्रह्ममें अर्थात् ब्रह्मनाड़ीके ब्रह्माकाशमें मन-प्राण क्रियाको स्थापन करके उनको ब्रह्म ही की प्राप्ति होती है। जब सबही एक हो गये, तब और बन्धन कहां? ॥२४॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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