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________________ गीताके कुछ शब्दोंका अर्थ ४-गीताके ( कतिपय ) कुछ शब्दोंका अर्थ गीता उपनिषदका सार और महाभारतका अङ्ग है। इसलिये प्रवृत्ति-धर्म और निवृत्ति-धर्म दोनों इसके अन्तर्गत हैं। प्रवृत्तिमार्गमें केवल भोग और सृष्टि है, निवृत्तिमार्गमें त्याग और मुक्ति है। योगसाधना निवृत्ति-धर्म है। गीताके योगार्थ समझना हो तो निवृत्तिधर्मके अनुसार शब्दोंका अर्थ करना होगा। इस कारणसे, प्रवृत्तिनिवृत्ति मार्ग भेदसे एकही शब्द किस तरह भिन्न भिन्न अर्थ युक्त होता है उसीको गीतामेंसे कुछ शब्दोंका अर्थ उदाहरणस्वरूप दिखाया जाता है__ (१) 'कर्म', 'विकर्म', व 'अकर्म'। कुछ करना ही 'कर्म' है, वह वाह्य क्रिया हो या प्राभ्यन्तरिक क्रिया उसमें कुछ बात नहीं है। एक कर्म कृत होनेसे चित्तमें जिस संस्कारकी उत्पत्ति होती है, उसके अवस्थाभेदसे परवती कर्मका पोषक, बाधक अथवा नाशक होता है; आशय यह है कि जिस प्रकार कर्मसे संस्कार उत्पन्न हुआ है, परवत्ती कर्म उसीके अनुरूप होनेसे ही, वह संस्कार उस परक्ती कर्मका पोषक होता है, नहीं तो बाधक अथवा नाशक। यह संस्कार ही 'विकर्म' है। यह जन्मजन्मान्तरीण कोंके फल होनेसे ही देव कहा जाता है। इसीसे जन्म और संसार-भोग होता है। कर्मानुष्ठानसे इसीका क्षय करना पड़ता है। प्रवृत्ति-निवृत्ति-मार्ग भेदसे कर्म और विकर्मका अर्थ भिन्न रूपसे नहीं लक्ष्य होता; केवल अकर्म सम्बन्धमें भिन्नार्थ लक्ष्य होता है। शास्त्रने जिन कर्मोका अनुष्ठान करना निषेध किया है, वही सब शास्त्र-निषिद्ध कर्म प्रवृत्तिमार्गके 'अकर्म' हैं। और कर्मानुष्ठान द्वारा कर्मक्षय होकर जो कर्म-विहीन अवस्था पाती हैं, वही निवृतिमार्गका अकर्म' है; इस अकर्मको ही 'नैष्कर्म्य ( १८ श्रः ४६ श्लोक) कहते हैं। [जो कर्म शास्त्र-निषिद्ध नहीं है, उसका अपव्यवहार होना ही कुकर्म कहा जाता है ] ।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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