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________________ ४ . अवतरणिका है। जो लोग योगमार्गमें विचरण करना प्रारम्भ करते हैं, वे लोग इन सब भाष्य-टीका-टिप्पणि प्रभृतिओंसे अपनी क्रियापद्धतिका प्रकृत आभास प्राप्त नहीं कर सकते। इसका कारण यह है कि, एक तो संस्कृत भाष्य-टीका आदि सबका साध्यायत्त नहीं है, दूसरा शंकराचार्य-प्रभृति महात्माओंने गीताका समुदय रहस्य भेद करके भी, लौकिक बहिमुख अर्थको प्रधान करनेसे, अल्पज्ञ लोग उसमेंसे अन्तमुख अर्यको प्रहण करने में समर्थ नहीं होते। असलमें, गीताका सम्पूर्ण प्रकृत योगशास्त्रीय व्याख्या नहीं है कहनेसे भी अत्युक्ति नहीं होता। इधर, योगसाधनामें गीताको छोड़कर दूसरा उपाय भी नहीं है। साधक लोग जो कुछ करेंगे, प्रतिपदमें उनको गीताका आश्रय लेना हा पड़ेगा नहीं तो विघ्नग्रस्त होवेंगे; परन्तु गीताका प्रकृत: योगार्थ अवगत न रहनेसे गीताका प्रकृत अभिप्राय नहीं समझ सकते। उनके इस अभावको दूर करनेके लिये शंकराचार्य और श्रीधरस्वामी इन दो महात्माओंके पदानुसरण करके गीताका योगशास्त्रीय व्याख्या प्रणयन करनेमें प्रयत्न किया गया। संस्कृताभिज्ञ पाठकोंके सुविधाके लिये प्रति श्लोकका संस्कृत अन्वय देकर साधारणके लिये अनुवाद दिया गया है। उसके बाद योगशास्त्रीय व्याख्या दिया गया है। इस व्याख्याको सर्वसाधारणको उपयोगी सरल करनेके लिये यथा सम्भव साधारण भाषामें लिखा गया है। कारण कि गीता साधारणकी सम्पत्ति है; इसके भाव-ग्रहणमें किसी को वञ्चित करना हमलोगोंका अभिप्राय नहीं है। .
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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